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गृहस्थ जीवन का आकर्षण क्यों?
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अन्न-दोनों दृष्टियों से ये तीनों आश्रम गृहस्थाश्रम पर अवलम्बित हैं। ब्रह्मचर्य आश्रम के व्यक्तियों को गृहस्थ-पण्डित पढ़ाते हैं, अध्यापक पढ़ाते हैं। उनके अन्न की व्यवस्था भी गृहस्थ ही करते हैं। वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम की व्यवस्था का उत्तरदायित्व भी गृहस्थ वहन करता है। मनुस्मृति का प्रसिद्ध श्लोक है
यस्मात् त्रयोप्याश्रमिणो, ज्ञानेनान्नेन चान्वहम् ।
गृहस्थेनैव धार्यन्ते, तस्माज्ज्येष्ठाश्रमो गृही।। ज्ञान और अन्न के द्वारा तीनों आश्रमों को गृहस्थ ही धारण करता है, इसलिए वह ज्येष्ठाश्रम है, सबसे बड़ा आश्रम है। चिन्ता का सम्बन्ध गृहस्थ के साथ
एक व्यक्ति दीक्षित हो रहा है, मुनि बन रहा है। किसी दूसरे व्यक्ति से कहा जाए-यह मुनि बन रहा है तुम भी मुनि बन जाओ। उस व्यक्ति का तर्क होता है-आप कहते हैं, दीक्षा लो, दीक्षा लो। यदि सब दीक्षित हो जाएंगे तो आपको भिक्षा कौन देगा, भोजन कौन देगा? गृहस्थ के बिना साधुत्व को आधार नहीं मिलता। इसलिए गृहस्थ आश्रम बहुत कठिन है, घोर है। एक गृहस्थ को बहुत दायित्व निभाने होते हैं। एक साधु के क्या जिम्मेवारी है? कहा जाता है-साधु के हाथ बगल में हैं। उसे कोई चिन्ता नहीं होती। एक गृहस्थ कहीं भी चला जाए, चिन्ता उसके साथ रहती है। वह सोचता रहता है-गांव में कैसे चल रहा है? परिवार के लोग कैसे है? पत्नी का स्वास्थ्य कैसा है? लड़के क्या काम कर रहे हैं? पढ़ रहे हैं या नहीं पढ़ रहे हैं? किसी बरी संगत या बरी लत में तो नहीं पड़ गए है? घर की सुरक्षा का प्रश्न भी उसके सामने होता है। घर में कोई चोर न घुस जाए? कहीं नुकसान न हो जाए? एक गृहस्थ ऐसी अनेक चिन्ताओं से सदा ग्रस्त रहता है। कहा गया-एक ग्यारहवीं प्रतिमा को धारण करने वाला श्रावक, जो श्रमणभूत होता है, साधु-तुल्य होता है, अनेक चिन्ताओं से आक्रांत रहता है। साधु-तुल्य होने पर भी वह गृहस्थ है, चिन्ता से मुक्त नहीं है। उसे पूरे परिवार की स्मृति हो रही है, उसकी दुकानें चल रही हैं, घर-बार चल रहा है। इन सबसे उसका सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। एक दिन उसे वापस वहीं जाना है।
प्रश्न हो सकता है-एक गृहस्थ, जो श्रमणभूत बन गया, उसका परिवार से रिश्ता क्यों नहीं टूटा? शास्त्रों में बतलाया गया-उसके प्रेम का, राग का जो धागा है, वह टूटा नहीं है। वह परिवार से रागात्मक रूप से जुड़ा हुआ है। वह श्रमणभूत बन गया फिर भी वह घर-बार से रागात्मक तंत से बंधा हआ है। जब मारणान्तिक समुद्घात होता है, आत्मा के प्रदेश शरीर से बाहर निकल जाते हैं, बहुत दूर तक चले जाते हैं। मरने के बाद आत्मा को जहां पैदा होना होता है, वहां तक आत्मा के प्रदेश पहुंच जाते हैं किन्तु चेतना का एक धागा जुड़ा रहता है, जिसे रजतसूत्र या सिल्वरकॉड कहा जाता है। आत्मा के प्रदेश उस धागे से निरन्तर जुड़े होते हैं, संपर्क बना रहता है। इसी प्रकार एक गृहस्थ का भी अपने परिवार से लगाव बना रहता है। वह परिवार की चिन्ता से मुक्त नहीं हो
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