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________________ जो रास्ते में घर बनाता है __पहली समस्या है-मनुष्य भोजन पानी को उपलब्ध करने की इच्छा से व्याकुल है। दूसरी समस्या है-वस्त्र, घर और अंलकार की प्राप्ति के लिए उसका चित्त व्यग्र बना हुआ है। तीसरी समस्या है-उसमें विवाह, संतान प्राप्ति और मनोज्ञ इन्द्रिय विषयों को पाने की अभिलाषा बनी हुई है। इस स्थिति में वह स्वास्थ्य को कैसे उपलब्ध हो सकता है? जीवन में कितनी समस्याएं हैं-रोटी की समस्या, पानी की समस्या, वस्त्र और मकान की समस्या। समस्याओं की एक लंबी श्रृंखला है। उपाध्याय विनयविजयजी ने आज से पांच सौ वर्ष पहले जिन समस्याओं को उभारा, वे आज के समाजवादी युग में भी बनी हुई हैं। आज का मनुष्य भी इन समस्याओं से आक्रान्त है। इन समस्याओं में मकान की समस्या एक बड़ी समरया है। ब्राह्मण का प्रश्न जब नमि राजर्षि घर से निकले, मुनि वने। उस समय बूढ़ा ब्राह्मण बोला-राजर्षि! आप मुनि बन रहे हैं पर आपको तो अभी बहुत सारे मकान बनाने हैं। आप चाहे उनमें न रहें पर आने वाली पीढ़ी के लिए तो बनाएं। पहले बड़े-बड़े प्रासाद बनवाइए, अट्टालिकाएं बनवाइए। उसके बाद आप मुनि बन जाएं। अभी क्यों मुनि बन रहे हैं? पासाए कारइत्ताणं, वद्धमाणगिहाणि य। बालग्गपोइयाओ य, तओ गच्छसि खत्तिया।। उस समय मुनि ने जो उत्तर दिया, वह सचमुच भारतीय चिंतन का, अध्यात्म चिंतन का और निर्वाणवादी परम्परा का एक शाश्वत उत्तर है। मुनि ने कहा-ब्राह्मण! तुम अभी सचाई को नहीं जानते। सचाई यह है संसयं खलु सो कुणई, जो मग्गे कुणई घरं। जत्थेव गंतुमिच्छेज्जा, तत्थ कुब्वेज्ज सासयं।। जो रास्ते में घर बनाता है, वह सदा संशय से भरा हुआ रहता है। अपना घर वहीं बनाना चाहिए जहां जाने की इच्छा हो और जहां जाने के बाद फिर कहीं जाना न पड़े। एक कमी है एक राजा ने बड़ा प्रासाद बनाया। वह अत्यन्त मजबूत और भव्य था। लोग आते हैं, उसे देखते हैं और साधुवाद देते हैं, मकान की भव्यता की सराहना करते हैं। चारों ओर से प्रशंसा के शब्द सुनकर राजा बहुत प्रसन्न होता। एक दिन एक अकिंचन, उदासीन संन्यासी आया। राजा स्वयं संन्यासी के साथ गया, उसे अपना मकान दिखाने लगा। एक-एक कर सारे कक्ष दिखाए पर कहीं भी प्रशंसा का एक शब्द संन्यासी के मुंह से नहीं निकला। राजा ने सोचा-ये मनि लोग कंजूस होते हैं, किसी की प्रशंसा करना जानते ही नहीं हैं। ऐसा बढ़िया मकान देखकर मुंह से कुछ बात निकलनी चाहिए पर एक भी शब्द नहीं निकला। सारा मकान देखकर जैसे ही दोनों बाहर आए, राजा बोला-'महाराज! आपने मकान देख लिया। आपको कैसा लगा मेरा मकान?' संन्यासी ने कहा-'जैसा है वैसा लगा।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003109
Book TitleMahavira ka Punarjanma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year
Total Pages554
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size11 MB
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