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जीवन विज्ञान : सिद्धान्त और प्रयोग समताल श्वास का बर्तन रखना सीख जाएं तो पानी भी खराब नहीं होगा, काम बन जाएगा। आग भी नहीं बुझेगी और हम उसे बहुत काम में ले पाएंगे। संकल्प की सफलता
सहिष्णुता का प्रयोग, सहन करने का प्रयोग, श्वास के बिना संभव नहीं होता। भगवान् महावीर के कष्टों की चर्चा हमने सुनी है। बाहुबली की बारह मास तक लगातार खड़े रहने की बात हम जानते हैं। बाल मुनि गजसुकुमाल के सिर पर अंगारे रख दिए गए और वे समभाव में खड़ रहे, यह हमने सुना है। न जाने कितने साधकों, संन्यासियों और धार्मिकों को हम जानते हैं, जिन्होंने बहुत कुछ सहा है, पर एक प्रश्न होता है कि सिर पर अंगारा क्या कोई सह सकता है? पैरों में आग क्या कोई सह सकता है। लाठी की मार पड़े, क्या कोई सह सकता है ? वह विरोध भी न जताए, क्या ऐसा हो सकता है? कभी संभव नहीं तो सर्वथा असंभव भी नहीं। पर यह संभव तब बनता है जब हमारी चेतना श्वास के साथ बिलकुल जुड़ जाए। चेतना और श्वास एक जैसी बन जाए, तब यह संभव हो सकता है। महावीर सागर की भांति गंभीर थे, समुद्र की इतनी गहराई में चले गए कि लाठी मारने वाला चमड़ी पर मारता है पर उसे जानने वाला सागर में गोते लगाने चला गया। स्थान खाली पड़ा है। लाठी चली, पर घर तो खाली है। कष्ट किसको होगा? जो कष्ट को अनुभव करने वाला था वह तो बहुत गहराई में चला गया। यह गहराई की बात श्वास की प्रक्रिया के द्वारा की जाती है। आन्तरिक परिवर्तन के दो सूत्र
परिवर्तन के दो महत्त्वपूर्ण हेतु और हैं-धर्मचिन्ता और जातिस्मृति (पूर्वजन्म का ज्ञान)।
राजा ने बूढ़े बैल की स्खलित गति को देखकर सोचा, बूढ़ा होने पर ऐसा होता है तो क्या मुझे भी बूढ़ा होकर इस स्थिति से गुजरना पड़ेगा? इस चिन्तन ने परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त कर दिया। अब राजा राजा नहीं रहा, वह मोक्ष मार्ग का पथिक बन गया, मुनि बन गया।
जब यह चेतना जाग उठती है तब मनुष्य के जीवन का यात्रा पथ बदल जाता है, दिशा बदल जाती है, आकर्षण बदल जाता है और तब वह घटित होता है, जिससे आदमी समाधि के लिए प्रस्थान कर देता है, समाधि में चला जाता है।
चित्त की समाधि या परिवर्तन का दूसरा सूत्र है- पूर्व जन्म की स्मृति। आदमी का मन सदा उलझा रहता है, मन की असमाधि बनी की बनी रहती है।
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