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जीवन विज्ञान : सिद्धान्त और प्रयोग बच्चों की मां को पारितोषिक दिया जाता है। उपयोगिता न हो तो नियन्त्रण की बात आ जाती है। उपयोगिता के आधार पर समाज ऐसी बात भी सोच लेता है कि समाज से बूढ़ों को समाप्त कर दिया जाए। ये सारी बातें बुद्धि की सीमा में अविहित नहीं हैं। फिर आश्चर्य कैसा ?
तरंग : भावों की तट की
आश्चर्य का स्वर आता है दूसरे तट से। हम दूसरे तट पर खड़े होकर ऐसी बात करते हैं। यह भा बहुत बड़ा आश्चय है। यह सारा हमारा भावपक्ष है। । एक व्यक्ति क्रोधी है, एक अभिमानी है। एक व्यक्ति हीनभावना से ग्रस्त है और एक व्यक्ति अहं से ग्रस्त है। एक व्यक्ति कायर है और एक व्यक्ति साहसिक है। एक लड़ाकू है। ये जितने भी आवेग हैं, ये जितनी भी तरंगें हैं, ये उस तट को छूकर आ रही हैं। एक अविकसित बालक भी इन भाव- तरंगों से प्रभवित हो जाता है।
वह भावना से परे नहीं जा सकता। मन की चंचलता, बुद्धि के गलत निर्णय, इन्द्रियों की चंचलता- ये सारे अपने आप में दोषी नहीं हैं। इनमें न मन का दोष है, न बुद्धि का दोष है और न इन्द्रियों का दोष है। इनका दोष भी नहीं है, अदोष भी नहीं है। जितने दोष या अदोष, बुराई और अच्छाई आती है वह उस तट से आती है। अच्छाई भी आती है तो उस तट से आती है और बुराई भी आती है तो उस तट से आती है।
समाधान में बाधाएं
आज की शिक्षा का लंगड़ापन यह है कि हम इस तट के बारे में खूब जानते हैं, किन्तु उस तट के बारे में नहीं जानते जहां से ये सारी विकृतियां, ये सारे दोष आ रहे हैं। संभवत: शिक्षाशास्त्री यह मान बैठे हैं कि हमारा पूरा उपक्रम दृश्य जगत् के लिए हो सकता है । अदृश्य जगत् हमारा विषय नहीं है, हमारी शिक्षा का क्षेत्र नहीं है, शिक्षा की सीमा में नहीं है।
अपराधी अपराध करता चला जाता है। वह अपराध छोड़ना भी नहीं चाहता और कटघरे में खड़ा होना भी नहीं चाहता। इसी प्रकार आज आदमी की ऐसी मनोवृत्ति हो गई है कि जीवन में विकार आते हैं पर वह उन विकारों के प्रतिकार की बात नहीं सोचता और सुधार की बात करता चला जाता है। यह मनोवृत्ति जब तक चलेगी तब तक सुधार नहीं होगा। समस्या का समाधान नहीं होगा।
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