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जीवन विज्ञान : सिद्धान्त और प्रयोग ३. चैतन्य-केन्द्र जागरण ६. सामुदायिक चेतना का विकास ४.स्वभाव परिवर्तन ७. रचनात्मक शक्ति का विकास ५. आभामंडलीय निर्मलता उसके साधक तत्त्व पांच हैं१. श्वास-प्रेक्षा
४. अनुप्रेक्षा (संदेश और अनु-चिन्तन) २. शरीर-प्रेक्षा
५. लेश्या-ध्यान (आभामंडल का ध्यान) ३. चैतन्य-केन्द्र-प्रेक्षा
अनुप्रेक्षा मस्तिष्क प्रशिक्षण की पक्रिया है। उसमें पुनरावृत्ति की जाती है। संस्कार निर्माण के लिए एक मास से तीन मास तक प्रतिदिन ५० से १०० आवृत्तियां की जाती हैं। शिक्षण के लिए ३२ से ५० आवृत्तियां करना आवश्यक
मस्तिष्क प्रशिक्षण प्रणाली के द्वारा मस्तिष्क और शरीर को प्रतिदिन नियन्त्रित (या सूचना द्वारा सूचित या निर्दिष्ट) कर स्वास्थ्य को नियमित किया जा सकता है।
इसके द्वारा व्यवसाय, खेलकूद, अन्तरिक्ष यात्रा, समुद्र यात्रा, पर्वतारोहण आदि विभिन्न क्षेत्रों में कठिन प्रतीत होने वाले कार्य सरलतापूर्वक किए जा सकते हैं। इस प्रणाली के द्वारा अन्तःप्रज्ञा (इन्ट्यूशन) को विकसित कर अनेक महत्त्वपूर्ण निर्णय लिए जा सकते हैं। व्यवसाय प्रबन्धक, राजनयिक, प्रशासन तंत्र के अधिकारी, न्यायाधीश और कार्यपालिका के सदस्य- ये सभी इनसे लाभान्वित हो सकते हैं। पुलिस और सेना के लिए भी इसका बहुत मूल्य है। एकाग्रता, संकल्पशक्ति, नियन्त्रण की क्षमता और स्वभाव की पुनर्रचना- ये जीवन की उपलब्धियां हैं। जीवन-विज्ञान के प्रयोग द्वारा इन्हें प्राप्त किया जा सकता है। संस्कार परिवर्तन की प्रणाली
जीवन-विज्ञान की प्रणाली संस्कार-परिवर्तन की प्रणाली है। यह बौद्धिक क्षमता और समृति की क्षमता को बढ़ाने वाली प्रणाली है, क्योंकि इसमें ग्रहण की अपेक्षा ग्रहण के मूल स्रोत पर अधिक ध्यान दिया गया है। व्यक्ति-व्यक्ति में ग्रहणात्मक क्षमता का तारतम्य होता है। वह कितना रिसेप्टिव है, कितना ग्रहण करता है- इस पर विशेष ध्यान दिया जाता है। पर सोचना यह है कि ग्रहण के जो मूल केन्द्र हैं मस्तिष्क के, जो सुप्त पड़े हैं, उन्हें कैसे जगाया जाए ?
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