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जीवन विज्ञान : सिद्धान्त और प्रयोग इच्छा को स्वीकार करता चले तो सारी व्यवस्था गड़बड़ा जाती है एक सुन्दर मकान देखा, किसकी इच्छा नहीं होगी कि मैं इस मकान में रहूं ? इच्छा हो सकती है रास्ते में खड़ी सुन्दर कार को देखा, कौन नहीं चाहेगा कि मैं इसमें सवारी करूं । प्रत्येक रमणीय, सुन्दर और मनोरम वस्तु के लिए व्यक्ति की इच्छा हो सकती है पर वह यह सोचकर इच्छा को अमान्य कर देता है कि यह मेरी सीमा की बात नहीं है। यह है विवेक - चेतना का काम ।
शिक्षा का काम है कि वह मनुष्य- मनुष्य में विवेक - चेतना को जगाए। इससे संवेग - नियन्त्रण और संवेदनाओं तथा आवेगों पर नियन्त्रण करने की क्षमता पैदा होती है।
संवेग समस्या का कारण
आज युग बदल गया, परिस्थितियां बदल गईं, किन्तु हमारी धारणाएं और संस्कार नहीं बदले। युग के साथ-साथ जो परिवर्तन आना चाहिए था, वह नहीं आया। समाज में ओसर- मोसर की बात, छुआछूत और दहेज की बात वैसे ही चल रही हैं जैसे वह प्राचीन काल में चलती थी। प्राचीन काल में, सम्भव है, इनका मूल्य रहा हो, पर आज वे सब मूल्यहीन बन गए हैं। फिर भी ये सारी प्रवृत्तियां आज भी चल रही हैं। बहुत सारी सामाजिक समस्याएं जो सिरदर्द बनी हुई हैं, एक शिक्षित व्यक्ति में उनका परिवर्तन होना चाहिए। अनेक अन्धविश्वास और रूढ़ियां समाज के लिए सिरदर्द बनी हुई हैं। पढ़े-लिखे लोग भी इनके शिकार हैं। हम दहेज का ही प्रश्न लें। दहेज के कारण युवतियों को यातनाएं दी जाती हैं, पीड़ा पहुंचाई जाती है और ऐसी स्थिति बना दी जाती है कि वे आत्महत्या कर प्राण देने के लिए मजबूर हो जाती हैं या उनकी हत्या कर दी जाती है। ऐसा अनपढ़ लोगों में ही नहीं होता, पढ़े-लिखे लोगों में भी होता है। प्रश्न उभरता है कि शिक्षित लोग ऐसा क्यों करते हैं ? इसका एक ही उत्तर है कि उनमें बुद्धि तो है पर अपने संवेग पर नियन्त्रण रखने की क्षमता नहीं है। यहां संवेग होता है लोभ का । जब लोभ प्रबल होता है तब बुद्धि उसके नीचे दब जाती है। संवेग और बुद्धि का शाश्वत संघर्ष है। बुद्धि निर्णय लेती है कि यह काम अच्छा नहीं है, नहीं करना चाहिए। किन्तु जब संवेग प्रबल होता है, बुद्धि दब जाती है और कार्य वही होता है, जो संवेग का दबाव होता
है।
हम इस सचाई पर ध्यान दें-हम अनजान में गलतियां बहुत कम करते हैं। अधिकतर गलतियां जानते हुए ही होती हैं। अनजान में चलते-चलते ठोकर लग
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