________________
१२१
शिक्षा और नैतिकता चलाने के लिए कुछ तत्त्व अपेक्षित हैं। यह भी सब जानते हैं कि समाज की व्यवस्था और शिक्षा की व्यवस्था- इन दोनों में गहरा संबंध है। शिक्षा का काम है ऐसे व्यक्ति तैयार करना, जो समाज-व्यवस्था के प्रेरक बन सकें और उसको ठीक ढंग से चला सकें। जीवन-विज्ञान की शिक्षा पद्धति में सैद्धांतिकता कम है और अभ्यास अधिक है। उसका समाज-व्यवस्था में तालमेल हो सकता है। रूपान्तरण के केन्द्र
भारत के ऋषि-महर्षियों ने, आचार्यों ने व्यक्तित्व के रूपांतरण के लिए, उच्च चेतना को जगाने के लिए अनेक उपाय खोजे थे। उन्होंने शरीर पर बहुत ध्यान दिया, क्योंकि शरीरतन्त्र मुख्य तन्त्र है। चेतना भी तो शरीर के भीतर ही है। शरीर के बिना चेतना की अभिव्यक्ति कहां हो सकती है ? उन्होंने शरीर में ऐसे केन्द्र खोजे, जहां व्यक्ति के बदलने की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। ऐसे केन्द्र दो-चार नहीं, सैकड़ो केन्द्र खोजे गए, जिनके द्वारा वृत्तियों का परिवर्तन किया जा सकता है,स्वभाव को बदला जा सकता है।
आज का विद्यार्थी केवल पढ़ता है। वह मनन नहीं करता। उसके पास मनन करने के लिए समय ही नहीं है। मनन के बिना आचरण की बात प्राप्त नहीं होती। पढ़ना, मनन करना, आचरण करना-ये तीनों अभ्यासात्मक हैं। इनकी समन्विति से ही धर्म या नैतिकता जीवन में अभिव्यक्ति पाती है।
अभ्यास १. नैतिकता के विकास के लिए शारीरिक अनुशासन क्यों जरूरी है ?
नैतिक परिवर्तन में क्या कर्म भी एक आधार बनता है ? भावात्मक परिवर्तन से क्या नैतिक विकास किया जा सकता है ? काण्ट और जीवन विज्ञान द्वारा बताये गये नैतिक आधारों पर अपनी समीक्षात्मक टिप्पणी कीजिए।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org