SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शिक्षा और भावात्मक परिवर्तन परिपक्व करने के लिए दो सिद्धान्त हैं १. सब जीव समान हैं। २. हम सब एक हैं। इनके लिए दो आलम्बन--सूत्र हैं 'तुमसि नाम सच्चेव, जं हंतव्वं ति मन्नसि' मारना चाहता है। , ११३ 'सव्वभूयप्पभूयस्स'- इसका तात्पर्य है, हम सब एक हैं। इन आलंबन - सूत्रों का निरंतर अभ्यास किया जाए, इनको बार-बार दोहराया जाए, चिन्तन और मनन किया जाए तो यह बात अनुभूति में उतरने लगती है । यदि कोई व्यक्ति एक वर्ष तक ऐसा करे तो उसका संकल्प पकने की स्थिति में आता है। आदमी संकल्प ले लेता है, पर उसे पकाता नहीं। पकाने के लिए तेज आंच चाहिए। वह तेज आंच है- अभ्यास, पुनरावृत्ति । इसके द्वारा शब्द से चलते-चलते आदमी अनुभूति तक पहुंच जाता है। चलता है शब्द से, पहुंच जाता है अनुभूति पर । यात्रा अनुभूति के स्तर तक Jain Education International वह तू ही है, जिसे तू आलम्बन शब्दात्मक हो सकते हैं, पर हम शब्द पर नहीं अटकेंगे। उसके माध्यम से अध्ययन करेंगे और चिंतन-मनन करते-करते अनुभूति तक चले जायेंगे। अनुभूति के स्तर पर जो घटित होता है। वह हमारी परिवर्तन की भूमिका है। वहीं आदमी बदलता है। एक बार जिसको गहरे में अनुभव हो गया वह आदमी अवश्य बदलेगा। जो बात केवल रीजनिंग माइंड तक जाती है, कोन्शियस माइन्ड तक पहुंचती है वह बात अधिक स्थिर नहीं रह पाती। जो बात अनकोन्शियस माइन्ड तक पहुंच जाती है, वह छूटती नहीं, वह पकड़ ली जाती है । अभ्यास का अर्थही है कि आलंबन के सहारे चलते -चलते वहां तक पहुंच जाना। वहां पहुंचने के बाद आलम्बन छूट जाता है, शब्द छूट जाता है, केवल अर्थ बच जाता है, यह है शब्द से अर्थ तक की यात्रा । हमारी चेतना के दो स्तर हैं। एक है ज्ञान का स्तर और दूसरा है अनुभूति का स्तर। ज्ञान के स्तर पर आदमी जान लेता है। अनुभूति के स्तर पर आदमी बदलता है। जब तक आदमी ज्ञान के स्तर पर रहता है तब तक उसका आचार-व्यवहार बदलता नहीं। वह कितना ही पढ़-लिख जाए, आचार से वह शून्य रहेगा, क्योंकि उसमें अनुभूति नहीं है। यह अनुभूति की चेतना बहुत महत्त्वपूर्ण है। यह बुद्धि से आगे की चेतना है, इसको जगाना ही अभ्यास का काम है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003108
Book TitleJivan Vigyana Siddhanta aur Prayoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2008
Total Pages236
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Education
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy