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जीवन विज्ञान और सामाजिक जीवन वैज्ञानिक पद्धति
जीवन विज्ञान की पद्धति वैज्ञानिक इस अर्थ में है कि केवल अंधेरी कोठरी में ढेला फेंकने की बात इसमें नहीं है। पूरे विज्ञान के साथ यह चलती है। कारण
और परिणाम-दोनों का स्थान इसमें है। इस आदत का कारण क्या है और इसका परिणाम क्या है? इसके बदलने का हेतु क्या है? इसका परिणाम क्या है? और इसकी प्रक्रिया क्या है? यह सब बहुत स्पष्ट है गणित की भांति। किसी को संदेह करने की जरूरत नहीं। शरीर-विज्ञान को जानने वाला, मानव-विज्ञान को जानने वाला इस सचाई को बहुत जल्दी पकड़ लेता है, उसकी समझ में आ जाता है कि हमारे शरीर में जो विशिष्ट केन्द्र हैं चेतना के, उनका फंक्शन क्या है? उनका परिणाम क्या है? यह बात तो शरीर विज्ञानी जानता है किंतु ध्यान के द्वारा फंक्शन कैसे बदलता है और उसका परिणाम क्या होता है, यह शरीर-विज्ञानी नहीं जानता। ये दोनों बातें जुड़ जाएं तो सामाजिक जीवन पद्धति बदल सकती है। अभी अधूरी-अधूरी बात चल रही है, इसलिए आज अपेक्षा है कि सामाजिक शिक्षा के साथ अध्यात्म की शिक्षा जुड़े और सामाजिक जीवन प्रणाली के साथ अध्यात्म की जीवन प्रणाली जुड़े। दोनों का योग हो जाए। दोनों का योग होने पर ही नई चेतना जाग सकती है, चेतना का रूपान्तरण हो सकता है।
___ चेतना के रूपान्तरण के बिना सामाजिक स्थितियां नहीं बदलतीं। हमारी चेतना जब बदलती है तब व्यवहार बदल जाता है। धर्म ने अहिंसा पर, अपरिग्रह पर बहुत बल दिया। इतना बल देने पर भी अहिंसा का विकास जितना होना चाहिए था, उतना नहीं हुआ। एक प्रश्न है, क्यों नहीं हुआ ?हजारों वर्षों की लम्बी परम्परा में इतना प्रयत्न करने पर भी ऐसा क्यों नहीं हुआ? कारण एक ही मालूम पड़ता है कि जीवन में अहिंसा उतरती है चेतना के बदल जाने पर, जीवन में अपरिग्रह उतरता है चेतना का रूपान्तरण हो जाने पर। चेतना तो मूल की स्थिति में है। जितना ममत्व चित्त में चाहिए पूरा ममत्व चित्त में विद्यमान है, जितनी आसक्ति चाहिए उतनी आसक्ति चेतना में विद्यमान है, जितनी संघर्षप्रियता, समस्या को संघर्ष के द्वारा सुलझाने की मनोवृत्ति चाहिए, वह चेतना में विद्यमान है और हम स्वप्न लेते हैं कि अपरिग्रह आए, अहिंसा आए। यह कैसे संभव होगा? चेतना के रूपान्तरण का परिणाम
अहिंसा चेतना के रूपान्तरण का परिणाम है। असंग्रह चेतना के बदल जाने का एक व्यक्त रूप है। जब तक यह परिवर्तन नहीं होता, अहिंसा और अपरिग्रह के
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