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आदि सब समाप्त हो जाते हैं। मनुष्य बिलों में रहने लगते हैं। सहस्रों वर्षों तक यही स्थिति रहती है। उसके बाद लोग बिलों से निकलते हैं और मिलजुलकर सोचते हैं कि हमारे जीवन का क्रम बिगड़ गया है। हम क्रूर हत्यारे बन गए हैं। यह हमारे लिए शोभनीय नहीं है। अब भविष्य के लिए हमें नए सिरे से सोचना चाहिए। काफी चिंतन-मनन के पश्चात अग्रोक्त बातें सामूहिक रूप में स्वीकृत की जाती हैं
• हम मांस नही खाएंगे। • छीना-झपटी नहीं करेंगे। • क्रूरता नहीं करेंगे।
• संस्कृति की टूट-फूट का पुनः निर्माण करेंगे। जागरूकता का मूल्य
यह बात मैंने प्रसंगवश बताई । हमारा मूल विषय था-साधक की सजगता और असजगता का। साधक के सामने कठिनाइयां, अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितियां तो रहती हैं। इस स्थिति में यदि साधक सावधान नहीं रहता है, तो वह पग-पग पर पाप-बंधन कर सकता है। भगवान महावीर ने कहा-उड्ढं सोता अहे सोता तिरियं सोता....... भावार्थ यह है कि पाप-बंधन के स्रोत लोक में सर्वत्र खुले हैं। साधक कहीं क्यों न चला जाए, यदि वह अपने-आपमें जागरूक नहीं है तो पाप का बंधन कर लेगा। इसलिए साधना की सफलता का पहला और सबसे महत्त्वपूर्ण सूत्र है-जागरूकता। साधक कहीं रहे, किसी स्थिति में रहे, पर क्षण-क्षण जागरूक रहे। अपने आत्मोदय का लक्ष्य क्षण-भर के लिए भी विस्मृत न करे। यदि इस क्रम से वह आगे बढ़ता है तो एक दिन निस्संदेह अपने लक्ष्य में सफल होता है। शरीर उपकारी है
यहां एक बात समझने की है। हालांकि साधक का लक्ष्य आत्मविकास होता है, तथापि वह शरीर से बंधा हुआ होता है। ऐसी स्थिति में जब तक वह शरीर से पूर्णतया मुक्त नहीं होता, तब तक आत्मोदय के चरम शिखर पर नहीं पहुंचता। इसलिए उसे शरीर को एकन-एक दिन छोड़ना आवश्यक है, पर यह अंतिम स्थिति है। प्रारंभिक भूमिकाओं में शरीर बंधन होते हुए भी उसके लिए बहुत उपयोगी है, साधना में सहयोगी है, उपकारी है। साधक उसी से तो विभिन्न प्रकार की
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आगे की सुधि लेइ
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