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की । यदि साधक की आत्मा समता से भावित हो जाती है तो बाहर की अनुकूलता - प्रतिकूलता, मनोज्ञता अमनोज्ञता फिर उसे प्रभावित नहीं कर सकती। वह उनके बीच रहकर भी बंधन से मुक्त रह जाएगा । कम्यूनिज्म आ गया तो !
अतः मूलभूत बात है अपनी सजगता की। जो व्यक्ति अपने-आपमें जागरूक होता है, इंद्रियों और मन को नियंत्रित रखने का अभ्यस्त होता है, वृत्तियों को उच्छृंखल होने से बचाना जानता है, उसे कहीं कोई खतरा नहीं है। आज बहुत से लोगों को भय पैदा हो रहा कि कम्यूनिज्म आ गया तो क्या होगा ! मैं उनसे कहना चाहता हूं, कम्यूनिज्म आए या और कोई शासन पद्धति आए, यदि व्यक्ति स्वयं सजग है तो उसका कोई अहित नहीं हो सकता। अलबत्ता, शासन पद्धतियों की व्यवस्थाओं का व्यक्ति के हित-अहित पर थोड़ा प्रभाव पड़ सकता है, पर पड़ता तभी है, जब व्यक्ति स्वयं सजग असजग हो । वस्तुतः कम्यूनिज्म यानी साम्यवाद से भय उन लोगों को है, जो धर्मांधता से जुड़े हुए हैं, मठोंमंदिरों को अपनी आजीविका का साधन बनाए हुए हैं, पूंजी बटोरे हु हैं या बटोरने में लगे हुए हैं। जो लोग इन स्थितियों से बचे हुए हैं, उन्हें कम्यूनिज्म से कोई खतरा नहीं है। अणुव्रत धर्म के जिस स्वरूप को व्याख्यायित कर रहा है, उसे आधार मानकर चलनेवाले के लिए कम्यूनिज्म कोई खतरा पैदा नहीं कर सकता । अणुव्रत जाग्रत धर्म का प्रारूप है, जाग्रत धर्म है । उसमें धर्मांधता को कहीं कोई स्थान नहीं है । मंदिरों, मठों या धर्मस्थानों से वह अनुबद्ध नहीं है। उसका सीधा संबंध व्यक्ति के जीवन से है, जीवन के व्यवहार और आचरण से है । इसी प्रकार अणुव्रत का पूंजी से कोई संबंध नहीं है। वह न तो पूंजी के आधार पर खड़ा है और न पूंजीवाद को प्रोत्साहन ही देता है। उसका आधार है- विशुद्ध अध्यात्म यानी जीवन की पवित्रता । वह प्रोत्साहन देता है संयम और व्रत को । इसलिए कम्यूनिज्म की तो बात ही क्या, संसार की किसी शासन-पद्धति से अणुव्रत को खतरा नहीं है ।
संस्कृति का अविरल प्रवाह
मैं मानता हूं, जो शाश्वत तत्त्व हैं, उन्हें कभी समाप्त नहीं किया जा सकता। यदि कोई संस्कृति जीवित रहती है तो वह शाश्वत तत्त्वों के आधार पर ही रहती है। जिस संस्कृति में शाश्वत तत्त्वों का अभाव होता
आगे की सुधि लेइ
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