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________________ लड़ना होता है, तब वे नाजायज-से-नाजायज काम करते नहीं हिचकते। उस समय हिंसा-अहिंसा की बात उन्हें याद नहीं आती! आचार्य भिक्षु ने भवन-निर्माण में धर्म नहीं बताया तो क्या झूठा मुकदमा लड़ने में धर्म बताया है? वे उस समय आचार्य भिक्षु का सिद्धांत क्यों नहीं याद रखते? आचार्य भिक्षु के हिंसा-अहिंसा के सिद्धांत की ओट में जो लोग अपने सामाजिक दायित्वों की उपेक्षा करते हैं, उनसे मैं कहना चाहता हूं कि वे अपनी यह वृत्ति बदलें। यदि वे सामाजिक कार्यों में सहयोग नहीं ही देना चाहते हैं तो स्पष्ट रूप से इनकार क्यों नहीं करते? क्यों नहीं यह स्वीकार करते कि अपनी अनुदारवृत्ति के कारण हम अर्थ का विसर्जन नहीं कर सकते? फिर सिद्धांत तो बदनाम नहीं होगा, धर्म तो लांछित नहीं होगा, धर्मगुरु पर तो लोग आक्षेप नहीं करेंगे। आचार्य भिक्षु का मंतव्य __ बंधुओ! आचार्य भिक्षु का सिद्धांत और उनका मंतव्य आप गहराई से समझें। आचार्य भिक्षु यह बात बहुत अच्छी तरह से समझते थे कि सामाजिक/लौकिक कार्य सदा होते रहे हैं और भविष्य में होते रहेंगे। इसलिए वर्तमान में भी सामाजिक प्राणी उनकी उपेक्षा नहीं कर सकता। हिंसा होने के बावजूद उन्हें करना उसके लिए आवश्यक है। उनके बिना उसका काम नहीं चल सकता। इसलिए उन्होंने उन्हें करने का सीधा निषेध नहीं किया। सीधा निषेध मात्र उन लोगों के लिए किया, जो आदर्श को जीना चाहते हैं। यह शुद्ध अध्यात्म की भूमिका है। इस भूमिका में जीनेवाला ऐसी कोई प्रवृत्ति नहीं कर सकता, जो अध्यात्म की परिधि से बाहर है। पर व्यवहार की भूमिका में जीनेवाले के लिए यह सीमा नहीं है। उसकी सीमा विस्तीर्ण है। वह आंशिक रूप में ही अध्यात्म को अपना पाता है। वह ऐसी भी बहुत-सी प्रवृत्तियां करता है, जो आध्यात्मिक नहीं हैं, जिनमें स्पष्ट रूप से हिंसा है। इस आदर्श और व्यवहार के बीच आचार्य भिक्षु की सामंजस्यपरक दृष्टि यही रही कि सामाजिक प्राणी शुद्ध अध्यात्म की भूमिका को अपना आदर्श माने, व्यवहार की भूमिका को जीता हुआ भी आदर्शोन्मुख गति करता रहे । व्यवहार की भूमिका में की जानेवाली प्रवृत्तियों में होनेवाली हिंसा को वह हिंसा माने। आवश्यक होने के कारण उन्हें अहिंसा न माने। मूलतः आचार्य भिक्षु का विरोध सामाजिक प्रवृत्तियों के करने से नहीं था, अपितु उनमें होनेवाली हिंसा को अहिंसा अध्यात्म और व्यवहार --७३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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