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________________ ७: नियति और पुरुषार्थ इस संसार में लोग अनेक प्रकार की साधना करते हैं, पर सबका लक्ष्य एक नहीं होता। कोई व्यक्ति भौतिक उपलब्धि के लिए साधना करता है। कोई विशेष कला में दक्ष होने के लिए साधना करता है। कोई आत्मशुद्धि के लिए साधना का पथ स्वीकार करता है। ......... धर्म की चरम परिणति जैन-धर्म आत्मलक्षी धर्म है। वह परम शांति को पाने का मार्ग प्रशस्त करता है, बंधन-मुक्ति यानी मोक्ष का उपाय बताता है। वस्तुतः धर्म की अंतिम परिणति मोक्ष ही है। बीच की सुविधाएं तो उसके प्रासंगिक फल हैं। कोई व्यक्ति यहां से कलकत्ता (कोलकाता) जाता है। वहां पहुंचने से पहले मार्ग में अनेक स्टेशन आते हैं, पर उनमें से कोई उसका लक्ष्य नहीं है। इसी प्रकार किसी प्रकार की भौतिक सुविधा की प्राप्ति एक आत्मवादी का लक्ष्य नहीं है। उसका लक्ष्य है अपना आत्मस्वरूप प्राप्त करना, निर्वाण को प्राप्त होना। भेद में अभेद वैशेषिक दर्शन के आचार्य कणाद ने धर्म की परिभाषा देते हुए कहायतोऽभ्युदयनिश्रेयस्सिद्धिः सः धर्मः। यानी जो निर्वाण और भौतिक उन्नति दोनों का निमित्त बनता है, वह धर्म है। जैनाचार्यों ने इस संदर्भ में कहा-आत्मशुद्धिसाधनं धर्मः। अर्थात जो आत्मशुद्धि का साधन है, वह धर्म है। दोनों परिभाषाओं में जो अंतर है, वह स्पष्ट है, पर दोनों में सामंजस्य भी खोजा जा सकता है। धर्म आत्मशुद्धि का साधन है ही, भौतिक अभ्युदय का भी निमित्त बनता है। हां, इसके साथ धर्म का सीधा संबंध नहीं है। धार्मिक क्रियाओं से आत्मशुद्धि के साथ पुण्य का बंधन होता है। उससे भौतिक अनुकूलता की प्राप्ति होती है। मैं मानता हूं, यदि कोई धार्मिक व्यक्ति इस समन्वयात्मक दृष्टि को आधार मानकर चले तो - आगे की सुधि लेइ .४२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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