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निर्लक्ष्य काम करना कोल्हू के बैल की तरह घूमना है। अपने लक्ष्यनिर्धारण के संदर्भ में अनेक व्यक्ति मेरे सामने प्रश्न भी करते हैं। एक भाई ने अपनी समस्या रखते हुए कहा-'आचार्यजी! मैंने महाभारत पढ़ा है, गीता पढ़ी है, फिर भी मैं कौन हूं, कहां से आया हूं, कहां जाऊंगा, ये प्रश्न समाहित नहीं होते।' ___मैं कौन हूं, इस प्रश्न का सीधा-सा उत्तर यही है कि मैं त्रैकालिक आत्मा हूं। पहले था और भविष्य में भी रहूंगा। वर्तमान में जो चीज है, वह अतीत में थी और भविष्य में भी उसका अस्तित्व रहेगा, क्योंकि अतीत और भविष्य के बिना वर्तमान का कोई मूल्य नहीं हो सकता। जो लोग आत्मा को नहीं मानते या जल-बुदबुद की तरह नश्वर मानते हैं, वे भ्रांति में हैं। कोई व्यक्ति आज कोई पाप करता है। यदि आगे वह नहीं है तो फल कौन भोगेगा? आज एक व्यक्ति तरुण है तो एक दिन वह बच्चा था और कभी वृद्ध भी होगा। इसी तरह आत्मा की त्रैकालिक सत्ता में भी संदेह नहीं होना चाहिए।
मैं कहां से आया है, मैं कहां जाऊंगा-इन दोनों प्रश्नों के समाधान के रूप में चौरासी का चक्कर आता है। कोई प्राणी चाहे वह देव हो या नारक, मनुष्य हो या तिर्यंच, वह मोक्ष से नहीं आएगा। इसी तरह जब तक उसकी मुक्ति नहीं होती, वह संसार में है, तब तक उसे इस चौरासी में ही चक्कर लगाना होगा। आत्मा को न मानें तो इस प्रश्न का कोई समाधान नहीं मिल सकता। मनुष्य-जीवन का लक्ष्य
एक नास्तिक व्यक्ति अपना लक्ष्य स्थिर नहीं कर सकता। इसी लिए वह घूमता रहता है। अतः पहला काम है-लक्ष्य का स्थिरीकरण। मनुष्यजीवन का लक्ष्य है सब बंधनों से मुक्त होना। दूसरे शब्दों में शाश्वत सुखों की प्राप्ति।
कई व्यक्ति पूछते हैं कि मुक्ति में मित्र हैं या नहीं; खाना, सिनेमा आदि हैं या नहीं। यदि नहीं हैं, तो ऐसी मुक्ति हमें नहीं चाहिए। मेरी दृष्टि में ऐसा सोचना उचित नहीं है। भूख, नींद आदि सब बीमारियां हैं। जहां बीमारी न हो, वहां दवा लेने की जरूरत ही नहीं है। आज भी यदि भारत सरकार कहे कि ऐसी चीज खाने को दी जाएगी, जिसे खाने के
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आगे की सुधि लेइ
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