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आचारधर्म की प्रतिष्ठा ही धर्म की वास्तविक प्रतिष्ठा है। इसके माध्यम से ही स्वस्थ समाज संरचना परिकल्पना आकार ग्रहण कर सकती है। (६०) सत्य के प्रति ऋजु दृष्टिकोण रखनेवाला व्यक्ति ही सच्चा धार्मिक
है। (६३) • सह-अस्तित्व का सिद्धांत स्वीकार किए बिना विश्व-शांति की बात कभी आकार ग्रहण नहीं कर सकती। (७७) साधना की सफलता का पहला और सबसे महत्त्वपूर्ण सूत्र है-जागरूकता। (७८) • आदर्श वही है, जो साध्य तो है, पर किसी-किसी के लिए है। (७९) • परिग्रह तिजोरी में नहीं, बल्कि अपनी वृत्तियों में है, मन की आसक्ति
में है। (८३) • जिसके मन में आसक्ति नहीं है, वही सही माने में अपरिग्रही है। (८३) • धर्म होता है तन, मन और आचार से। धन के साथ उसका कोई संबंध नहीं है। धर्मस्थानों के साथ उसका कोई संबंध नहीं है। धर्म का शाश्वत संबंध है धार्मिक से। यदि उसके जीवन-व्यवहार में धर्म नहीं है तो उसका क्या उपयोग है? (८४) मजहब बल्बों के समान हैं, जो कि सीमित दायरे में प्रकाश करते हैं। धर्म सूर्य के समान है। उसके आलोक में सारा संसार आलोकित हो
जाता है। (८६) • यह कैसी विडंबना है कि व्यक्ति परमात्मा से तो मिलना चाहता है, पर
स्वयं के अस्तित्व से अनभिज्ञ रहता है! (९१) • श्रम से जी चुराने की मनोवृत्ति बहुत घातक है। इससे न केवल व्यक्ति
की शक्तियां कुंठित हो जाती हैं, बल्कि उसका जीवन भी स्वयं के लिए भारभूत-सा बन जाता है। ऐसी स्थिति में सुख और शांति की अनुभूति का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता। (९७) जो व्यक्ति सतत पुरुषार्थ करता रहता है, उसकी कदापि हार नहीं होती। वह देर-सवेर अपने अभीप्सित लक्ष्य की प्राप्ति में निश्चय ही
सफल होता है। (९८) • अधैर्य न केवल मोक्ष में बाधक है, बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में बाधक
है। (१०१)
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