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५१ : स्वस्थ समाज रचना
आज हम श्रीगंगानगर जिले की यात्रा संपन्न कर सरदारशहर पहुंचे हैं। यात्रा का सामान्य अर्थ है-एक स्थान से दूसरे स्थान के बीच की दूरी तय करना। पर शास्त्रों में यात्रा शब्द विशेष अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। कुछ दर्शनों में यात्रा का अर्थ तीर्थस्थान या देवमिलन बताया गया है। जैन-दर्शन में जीवन-चर्या के अर्थ में इस शब्द का प्रयोग किया गया है। इस अर्थ में हमारी यह यात्रा सतत चालू ही रहती है। हमारी सतत साधना की जीवनचर्या ही हमारी यात्रा है।
यों तो मैं अकेला भी साधना कर सकता हूं, लेकिन मैं अकेला ही नहीं हूं, एक बहुत बड़े संघ के उत्तरदायित्व से भी जुड़ा हुआ हूं। ऐसी स्थिति में सैकड़ों साधु-साध्वियां की साधना का पथ-दर्शन करना भी मेरी साधना का एक हिस्सा है। लाखों-लाखों श्रावक-श्राविकाओं को जीवननिर्माण की दिशा दिखाना भी मेरी जीवनचर्या के साथ जुड़ा हुआ है। इससे भी आगे, स्वस्थ समाज संरचना के लिए कार्य करना भी मेरी जीवनचर्या का एक अंग है। इसलिए जब तक वैयक्तिक साधना के साथ-साथ ये सारी बातें नहीं होतीं, तब तक मेरी यात्रा संपन्न कैसे हो सकती है ?
प्रश्न होता है कि स्वस्थ समाज का स्वरूप क्या है। मेरी दृष्टि मैं वह समाज स्वस्थ है, जिसमें व्यसन न हों, जिसकी जीवनशैली सात्त्विकता, सादगी और श्रमप्रधान हो। दूसरे शब्दों में ज्ञान, दर्शन व चारित्र की त्रिवेणी से आप्लावित समाज स्वस्थ समाज है। ज्ञान, दर्शन
और चारित्र का प्रतिनिधि शब्द है-धर्म या अध्यात्म। जहां धर्म विकसित होता है, वहां जीवन का निर्माण होता है और समाज स्वस्थ रहता है। इसके विपरीत जहां धर्म को सिंचन नहीं मिलता, उसे उपेक्षित कर दिया जाता है, वहां जीवन का निर्माण नहीं होता और समाज रुग्ण बन जाता है। • ३०२ .
- आगे की सुधि लेइ
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