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________________ का पथ है, मनुष्यता का पथ है। इसे स्वीकार करके आप सच्चे अर्थ में मनुष्य बन सकते हैं। __ आज चारों ओर अनैतिकता, भ्रष्टाचार, रिश्वत, धोखाधड़ी, हिंसा, बलात्कार, अनुशासनहीनता-जैसी अनेक बुराइयों का बोलबाला है। फिर इस समस्या का बहुत संवेदनशील बिंदु यह है कि ये बुराइयां दिन-प्रतिदिन अपना शिकंजा कसती ही जा रही हैं। इसका कारण यही तो है कि मनुष्य का सही निर्माण नहीं हो रहा है। यह सुनिश्चित बात है कि जहां मनुष्य मनुष्यता की राह से भटक जाता है, वहां इस प्रकार की स्थिति का बनना बहुत स्वाभाविक है। जहां मूल में ही कड़वाहट है, जहर है, वहां पत्तों, फूलों और फलों में कड़वाहट और जहर कैसे नहीं होगा? फल मीठा कैसे होगा! बाबा घूमता-फिरता पहली बार राजस्थान आया। एक दिन वह किसी गांव जा रहा था। मार्ग में उसे कड़ाके की भूख लग गई। उसने इधर-उधर दृष्टि दौड़ाई, पर उसे खाने लायक फल का कोई वृक्ष नजर नहीं आया। आता भी कैसे? राजस्थान के थली क्षेत्र में वृक्षों का अभाव है। फिर फलवाले वृक्षों का तो अति अभाव है। बाबा को चलने में कठिनाई होने लगी, पर कोई उपाय नहीं था, इसलिए जैसे-तैसे चलता रहा। कुछ दूरी तय करने के पश्चात उसे एक खेत में लता के लगा एक फल दिखाई दिया। उसे बड़ा आश्वासन मिला। उसके पैरों में नई गति का-सा संचार हो गया। वह शीघ्र खेत में पहुंचा और उसने बेल के लगा फल तोड़ा। फल देखने में बड़ा सुंदर था। वह कड़वा तुंबा था। बाबा ने वह फल पहले कभी देखा नहीं था, इसलिए उसके स्वाद से अपरिचित था। उसने उसे कोटा और खाना शुरू किया। पर यह क्या! मुंह में रखते ही उसका सारा मुंह कड़वाहट से भर गया। बाबा ने ऐसा कड़वा फल कभी नहीं खाया था। उसने उस बेल का फूल तोड़कर चखा। वह भी कड़वा। पत्ती तोड़कर चखी तो वह भी कड़वी। लता भी कड़वी। बाबा चिंतन में पड़ गया कि यह क्या; सभी कड़वे क्यों। समाहित होने के लिए उसने लता उखाड़कर उसकी जड़ चखी और सचमुच उसे समाधान मिल गया। जड़ तो कड़वी ही नहीं, महाकड़वी थी, मानो हलाहल जहर थी। बाबा मन-ही-मन बोल उठा कि जिसके मूल में ही जहर है, उसके फल, फूल, पत्तियां आदि मीठे कैसे होंगे। वे तो कड़वे ही होंगे। महाव्रत से पूर्व अणुव्रत .२९३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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