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________________ प्रकार की असत्प्रवृत्तियों से उपरत होना आवश्यक है। साधु-साध्वियां असत्प्रवृत्तिमात्र से उपरत होते हैं। यानी वे हिंसा की तरह ही झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह से संबद्ध सारी प्रवृत्तियों का सर्वथा परिहार करते हैं। _आप देखते हैं, बड़े-बड़े धनपति साधु-संतों की चरण-धूलि अपने मस्तिष्क पर लगाते हुए धन्यता की अनुभूति करते हैं। ऐसा क्यों? साधुसंतों के पास ऐसा क्या है, जो उन्हें अपनी ओर आकर्षित करता है? वह तत्त्व है-शील यानी आचार। इस धन से संपन्न व्यक्ति संसार के बड़े-सेबड़े अर्थसंपन्न व्यक्ति से बहुत बड़ा होता है। इसी आचार-धन की संपन्नता के कारण वह वंदनीय और पूजनीय बनता है। भर्तृहरि ने शील को सर्वश्रेष्ठ भूषण माना है ऐश्वर्यस्य विभूषणं सुजनता शौर्यस्य वाक्संयमो, ज्ञानस्योपशमः कुलस्य विनयो वित्तस्य पात्रे व्ययः। अक्रोधस्तपसः क्षमा प्रभवितुधर्मस्य निर्व्याजता, सर्वेषामपि सर्वकारणमिदं शीलं परं भूषणम्॥ - ऐश्वर्य का भूषण सौजन्य है। वीरता का भूषण वचन-संयम है। ज्ञान का भूषण उपशम है। कुल का भूषण विनय है। धन का भूषण पात्रदान है। तपस्या का भूषण क्षमा है। प्रभावशाली का भूषण सहिष्णुता है। धर्म, का भूषण निर्व्याजता यानी निश्छलता है। ये भूषण एक-एक गुण को लक्षित करके बताए गए हैं, लेकिन सबसे बड़ा भूषण शील यानी आचार है। संन्यास की सिद्धि कब यह शील/आचार अहिंसा का ही फलित है। जो अहिंसक होता है, वही शीलसंपन्न हो सकता है, आचारनिष्ठ बन सकता है। अहिंसा की संपूर्ण साधना संन्यास मार्ग में ही संभव है। इसलिए संन्यास जीवन-शुद्धि या जीवन-विकास का सर्वोत्कृष्ट मार्ग है। लेकिन आप लोगों में से अधिकतर अभी यह मार्ग स्वीकार नहीं कर सकते। क्यों? यह इसलिए कि अभी तक इसके अधिकारी नहीं हैं। अधिकारी व्यक्ति ही इसे अंगीकार कर सकता है। अधिकारी से मेरा तात्पर्य है-योग्यतासंपन्न। जिस व्यक्ति में संन्यास के पथ पर चलने की योग्यता नहीं, वह यदि यह पथ स्वीकार करता है तो उसका कोई अर्थ नहीं है। एक कृषक कृषि करने की बहुत महाव्रत से पूर्व अणुव्रत - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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