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मैत्री का व्यापक क्षेत्र
___ मैत्री बहुत व्यापक तत्त्व है। इसकी व्यापकता समझना बहुत जरूरी है। किसी के साथ परिचय बढ़ाकर मित्र बनाना बहुत छोटी बात है। अपरिचित/अजनबी के प्रति भी बुरा चिंतन नहीं करना मैत्री है। फिर यह मैत्री मुनष्यों तक ही सीमित नहीं रहती। पशु-पक्षियों, कीड़े-मकोड़ों और पेड़-पौधों के साथ भी मैत्री होती है। अतः हमें मानना होगा कि मैत्री का संबंध मात्र अपनों से नहीं, अपितु प्राणिमात्र से है। मैत्री और स्वधर्म
__ मैत्री के पीछे स्वार्थ-भावना न हो, लेने-देने का सौदा न हो, स्वस्थ विचारों का विकास होता रहे, यह अत्यंत आवश्यक है। मैं व्याख्यान देता हूं, यह मेरा धर्म है। मैं आपके लिए नहीं, किंतु अपने लिए व्याख्यान देता हूं। इससे मेरा स्वयं का विकास होता है। इस वृत्ति से मुझे कोई स्वार्थी भले कहे, पर स्व-विकास का यह स्वार्थ बुरा नहीं होता, बल्कि अध्यात्मसाधना का यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सूत्र है। यदि अध्यात्म के साधक के समक्ष यह सूत्र न हो तो वह साधना कर ही नहीं सकता। मैं आपके लिए प्रयास करूं, इसका अर्थ यह हुआ कि आप मेरा उपदेश सुनकर कुछ स्वीकार नहीं करेंगे तो मेरा प्रयास व्यर्थ हो जाएगा। लेकिन जब मैं स्वयं के लिए प्रयास करता हूं, स्वयं की साधना कि लिए उपदेश देता हूं, तब कोई व्यक्ति कुछ स्वीकार करे या न करे, इससे मुझे कुछ भी फर्क नहीं पड़ता। मुझे तो अपना लाभ मिल ही जाता है।
आप देखें, वृक्ष सबके लिए छाया करता है। अब कोई छाया ले, कोई न ले, यह पथिकों पर निर्भर है। साधक अपना कर्म करता है। कोई उससे लाभ लेता है या नहीं लेता है, इसे वह अपनी साधना का आधार और उसकी सफलता की कसौटी नहीं मानता। उसकी साधना का आधार और सफलता की कसौटी तो निष्ठापूर्वक अपना कर्म करना है। गीता में लिखा है कि व्यक्ति फल की आशा छोड़कर कर्म करे। कर्म के पीछे फल की आशंसा नहीं होनी चाहिए। यदि फलासक्ति से कर्म किया जाता है तो उसका वास्तविक फल नहीं मिलता।
हम देखते हैं कि नदी बहती है। नहर चलती है। बादल बरसता है। हवा बहती है। सूरज चमकता है। यह उनका स्वधर्म है। स्वधर्म निभाने में आनंद मिलता है। स्वधर्म निभानेवाले के समक्ष कभी निराशा की स्थिति
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