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________________ समझते ही हैं। असत्य बोलना, असत्य साक्षी देना, झूठा अभियोग लगाना, गलत आक्षेप करना, अपशब्द कहना, गाली देना आदि प्रवृत्तियां वाचिक हिंसा की कोटि में हैं। मन से किसी के बारे में अनिष्ट चिंतन करना, किसी के विचार रौंदना, जबरन अपने विचार थोपना, ईर्ष्या करना आदि प्रवृत्तियां मानसिक हिंसा कहलाती हैं। धन, परिवार आदि के प्रति आसक्ति भी मानसिक हिंसा है। कायिक हिंसा स्थूल है, इसलिए सबकी नजर में झटपट आ जाती है, लेकिन वाचिक और मानसिक हिंसा दोनों सूक्ष्म हैं, इसलिए इनकी तरफ कम ध्यान जाता है। इन दोनों में भी मानसिक हिंसा अपेक्षाकृत ज्यादा सूक्ष्म है। अतः उस पर तो ध्यान बहुत ही कम जाता है, पर मुझे लगता है कि व्यक्ति सामान्यतः कायिक और वाचिक हिंसा से भी ज्यादा मानसिक हिंसा करता है। पूर्ण अहिंसक बनने के लिए तीनों प्रकार की हिंसा से बचना जरूरी है। गृहस्थ और अहिंसा आप कहेंगे कि अहिंसा की संपूर्ण साधना एक गृहस्थ के लिए कैसे संभव है; क्या यह अव्यावहारिक बात नहीं है। मैं मानता हूं, जैन-तीर्थंकरों को व्यवहार का बहुत ख्याल था। गृहस्थ की अपेक्षाओं और स्थिति से वे सुपरिचित थे। इसलिए उन्होंने हिंसा के दो विभाग कर दिए-अर्थ हिंसा और अनर्थ हिंसा। जो हिंसा निष्प्रयोजन की जाती है, वह अनर्थ हिंसा कहलाती है। सप्रयोजन हानेवाली हिंसा अर्थ हिंसा है। गृहस्थ अर्थ हिंसा से नहीं बच सकता, यह एक स्थिति है। चाहे-अनचाहे उसे बहुत-सी ऐसी प्रवृत्तियां करनी होती हैं, जिनमें प्रत्यक्ष हिंसा है। जैसे खेती करना, भोजन पकाना, व्यापार करना आदि, पर अनर्थ हिंसा से वह बहुत आसानी से बच सकता है। उदाहरणार्थ-शिकार करना गृहस्थ के लिए जरूरी नहीं है। इसी प्रकार अनजान में होनेवाली हिंसा से वह नहीं बच सकता, पर संकल्पपूर्वक, इरादतन की जानेवाली हिंसा से वह आसानी से बच सकता है। पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति के जीवों की हिंसा से वह नहीं बच सकता, पर त्रस-चलने-फिरनेवाले प्राणियों की हिंसा से वह एक सीमा तक बच सकता है। अविवेक हिंसा है ___ मूलभूत बात है विवेक की। यदि व्यक्ति का विवेक जाग्रत होता है तो वह हिंसा से काफी बचाव कर लेता है। एक ही प्रवृत्ति एक व्यक्ति • २६४ - - आगे की सुधि लेइ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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