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४२ : अहिंसा और अनासक्ति
हिंसा कहां से जुड़ी है
आज का हमारा विवेच्य विषय है-अहिंसा। अहिंसा की जहां बात आती है, वहां हिंसा की बात अपने-आप आ जाती है। संसार के सभी धर्मों ने अपने-अपने ढंग से हिंसा-अहिंसा का चिंतन किया है। आज भी इस बारे में विचार चलता है। अनेक नए-नए विचार इस संदर्भ में सामने
आ रहे हैं। आम लोगों की ऐसी अवधारणा है कि किसी प्राणी का मरना हिंसा है और उसका जीना अहिंसा है, लेकिन जैन-तत्त्व-चिंतन के अनुसार यह समझ एकांगी और अधूरी है। वस्तुतः हिंसा और अहिंसा का संबंध किसी प्राणी के मरने और जीने से नहीं है। उसका संबंध है स्वयं के उत्थान और पतन से। उसका संबंध है स्वयं के प्रमाद और अप्रमाद से, स्वयं की सत और असत वृत्तियों से। इस अपेक्षा से किसी व्यक्ति के निमित्त से किसी प्राणी की हत्या हो जाने के पश्चात भी वह हिंसक नहीं होता, बशर्ते कि उसकी वृत्ति संयत है, वह पूर्ण जागरूकता की अवस्था में है। इसके विपरीत किसी प्राणी की हत्या न करता हुआ भी प्राणी हिंसक हो सकता है, यदि उसकी वृत्ति असंयत है, वह प्रमाद में जीता है। कहा गया है कि एक साधक यदि पूर्ण जागरूक होकर चल रहा है और उसके पैर के नीचे आकर कोई प्राणी मर भी जाता है तो भी वह हिंसा का दोषी नहीं है, पर वही साधक यदि प्रमाद में एक कदम भी धरता है तो वह छह ही कायों के जीवों का हिंसक है, भले उसके पैर के नीचे आकर किसी प्राणी की हत्या न हुई हो। इससे आप समझ सकते हैं कि हिंसा और अहिंसा के संदर्भ में जैन-तत्त्व-चिंतन कितना सूक्ष्म है। वाचिक और मानसिक हिंसा
जैन-धर्म ने प्राण-वियोजन कायिक हिंसा की तरह वाचिक हिंसा और मानसिक हिंसा पर भी चिंतन किया है। वाचिक हिंसा तो आप अहिंसा और अनासक्ति
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