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मायाजाल में! तिस पर भी मन भरा नहीं! यह तो अब भी खाली-काखाली ही है। और यह धन से कभी भर भी नहीं सकता। संसार-भर का धन प्राप्त करके भी मन की लालसा शांत नहीं हो सकती। इसे भरा जा सकता है तो एकमात्र संतोष से भरा जा सकता है। संतों के पास संतोष ही तो है। इसी लिए वे सदा शांति की अनुभूति करते हैं, सदा सुखी रहते हैं। अच्छा है मैं साधु बन जाऊं।
बस, उसकी एकाग्रता बढ़ी और उसे जाति-स्मरण ज्ञान हो गया। वह स्वयंबुद्ध बन गया। केशों का लुंचन करके वह राजा के समक्ष हाजिर हुआ।
कपिल अब याचक नहीं, मुनि थे। राजा-सहित सारी सभा उन्हें इस वेश में देखकर आश्चर्यचकित थी। राजा ने कहा-'बोलो कि क्या सोचा।' कपिल मुनि बोले-'राजन! मांगने का समय बीत गया। जो मुझे पाना है, वह मैंने प्राप्त कर लिया। अब कुछ भी पाना शेष नहीं बचा है। वैसे मांगने के लिए मैंने सोचा बहुत था; और जो सोचा था, वह मांग लेता तो अभी तुम भूखे फकीर बन जाते।' यों कहते हुए उन्होंने पूरा राज्य मांगने तक की अपनी लालसा की सारी कहानी सुनाई। एक क्षण रुककर उन्होंने कहा-'लेकिन राजन! पूरा राज्य भी मुझे तृप्त नहीं कर सका। मेरी लालसा तुम्हारे विशाल राज्य से कहीं विशाल थी, किंतु जैसे ही मैंने मुड़कर संतोष की दिशा में मुंह किया, मेरा मार्ग प्रशस्त हो गया। सचमुच तृष्णा आकाश की तरह अनंत है। दो माशे सोने की प्राप्ति की आकांक्षा से मैं घर से प्रस्थित हुआ था और वह दो करोड़ सोनयों पर भी समाप्त नहीं हुई। लाभ के साथ लोभ जुड़ा हुआ है। ज्यों-ज्यों लाभ बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों व्यक्ति का लोभ भी बढ़ता जाता है। इस तृष्णा का अंत पदार्थ से नहीं पाया जा सकता। संतोष ही उसका अंत है। त्याग ही उसे जीत सकता है। इस संतोष और त्याग का जीवन जीने के लिए मैंने साधुत्व स्वीकार कर लिया है। अब अकिंचन होकर भी मैं परम सुखी हूं, परम शांति का अनुभव कर रहा हूं।'
मुनि कपिल अस्खलित वाणी में बोले जा रहे थे-'भूपाल! संतोष से बढ़कर संसार में कोई धन नहीं है, त्याग से बढ़कर कोई उपलब्धि नहीं है। जिसने संतोष को पा लिया, त्याग का पथ अंगीकार कर लिया, उसने सब-कुछ पा लिया। और कुछ पाने की बात बस समाप्त हो गई। वह परम
- आगे की सुधि लेइ
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