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________________ क्या कर्म-मोचन संभव है यों तो मैं भी कर्म को मानता हूं और यह भी मानता हूं कि व्यक्ति को कर्म का फल भोगना पड़ता है, पर साथ ही यह भी मानता हूं कि जब कर्मों का कर्ता व्यक्ति स्वयं है तो उन्हें तोड़नेवाला भी वही है। वह कर्मबंधन में समर्थ है तो कर्म-मोचन में भी समर्थ है। पूछा जा सकता है कि कर्मों का मोचन कैसे होता है। जैसे दवा आदि के प्रयोग से बीमारियों से छुटकारा पाया जाता है, उसी प्रकार साधना, सत्संग, तपस्या आदि से पूर्वोपार्जित कर्म समाप्त किए जा सकते हैं। यदि ऐसा न हो तो इन सब क्रियाओं की सार्थकता ही क्या रहेगी? आसक्ति और निकाचित कर्म इस संदर्भ में एक बात समझ लेने की है। जिस प्रकार दवा आदि के प्रयोग के बावजूद कुछ बीमारियां मिटती नहीं, उन्हें भोगना ही होता है, उसी प्रकार कुछ कर्म साधना/तपस्या आदि के द्वारा भी नहीं टूटते। उन्हें तो भोगना ही होता है। तत्त्व की भाषा में उन्हें निकाचित कर्म कहते हैं। आप पूछ सकते हैं कि ऐसे कर्मों के बंधन से बचने का क्या उपाय है। एक शब्द में कहूं तो ऐसे कर्मों के बंधन से बचने का उपाय है-सजगता। कर्मों के बंधन के साथ आसक्ति और अनासक्ति का बहुत गहरा संबंध है। प्रवृत्ति में व्यक्ति की आसक्ति जितनी गहरी होती है, बंधन भी उतना ही गहरा होता है। आप एक स्थूल उदाहरण से इसे समझें। एक व्यक्ति भोजन करता है। वह सोचता है, मुझे इस शरीर से काम लेना है, स्वाध्याय, ध्यान और तपस्या करनी है, इसलिए इसे पोषण देना भी जरूरी है, किराया देना भी आवश्यक है। चूंकि भोजन के बिना शरीर को पोषण नहीं मिलता, यह चल नहीं सकता, इसलिए भोजन करता हूं। इस स्थित में उसे स्वादिष्ट अथवा अस्वादिष्ट जैसा भी भोजन प्राप्त होता है, उसे वह समभावपूर्वक खाता है। इस प्रकार अनासक्त भावना से कर्म में प्रवृत्त होने से कर्मों का प्रगाढ़ बंधन नहीं होता। उसी के साथ एक दूसरा व्यक्ति रहता है। वह स्वादवृत्ति से भोजन करता है। मनोज्ञ भोजन मिलने पर उसे खूब सराह-सराहकर खाता है और अमनोज्ञ भोजन देखकर नाक-भौं सिकोड़ता है। स्वादिष्ट भोजन मिल जाए तो भूख से दुगुना खा लेता है और अस्वादिष्ट होता है तो चखना भी नहीं चाहता। इस प्रकार खाना आसक्ति है। कहा जाता है कि अच्छे और बुरे का विवेक --२४१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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