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________________ पर चोर क्यों हों, जब कि कोई भूखा नहीं था ? भूख से मेरा तात्पर्य आप समझते होंगे। कोई अति आकांक्षी नहीं था। अनावश्यक संग्रह की वृत्ति नहीं थी। बंधुओ! आप सब भी अपनी-अपनी आकांक्षाएं कम करें। अनावश्यक संग्रह की वृत्ति त्यागें। मूर्छा छोड़ें। यदि ऐसा होता है तो आज भी वह स्थिति असंभव नहीं है। अनाकांक्षा ही मोक्ष है आप यह बात हृदयंगम करें कि आकांक्षा/मूर्छा/आसक्ति ही संसार है और जिस-जिस सीमा तक व्यक्ति इससे छूटता जाता है, उस-उस सीमा तक उसका मोक्ष होता जाता है। यानी आकांक्षा/मूर्छा/आसक्ति से मुक्ति ही मोक्ष है। यदि आपको मोक्ष का सुख प्राप्त करना है तो इससे छूटना होगा। आकांक्षा/मूर्छा/आसक्ति से छूटने के पश्चात व्यक्ति संसार में रहता हुआ और अपने सामाजिक दायित्व निभाता हुआ भी मोक्ष-सुख का एक सीमा तक अनुभव कर सकता है। यह कैसी विडंबना है कि भगवान महावीर ने अपरिग्रह/असंग्रह पर जितना बल दिया, उनके अनुयायी परिग्रह/संग्रह से उतने ही बंधे रहे! एक और आकांक्षाओं का विस्तार और दूसरी ओर मोक्षगमन की चाह-दोनों विरोधी बातें एक साथ कैसे फल सकेंगी? एक भूखा व्यक्ति संन्यासी के पास जाकर उनका शिष्य बन गया। बाबाजी के अनुयायियों ने श्रद्धा से नए शिष्य के लिए आवश्यक चीजें भेज दीं। वह दो दिन से भूखा था। उसने पेट-भर गरम-गरम खिचड़ी खाई और लेट गया। रात-भर गहरी नींद सोया। सुबह जब बाबाजी ने उसे उठाया तो वह बोला-'बाबाजी! जिंदगी में आज के सुख-जैसा सुख कभी नहीं मिला। मैं सोचता हूं, मेरे सब दुःखों का अंत आ गया है।' एक-दो क्षण रुककर पुनः बोला-'बाबाजी! मोक्ष यही है या और कुछ ?' कवि ने यही बात एक व्यंग्य के रूप में व्यक्त की है • खावण मिलगी खीचड़ी, ओढण मिलगी सोड़। चेलो पूछे गुरुजी नै, मोक्ष आही है कै और? • घर मांहि मिलतो नहीं, खावण पूरो नाज। भेख लियो भगवान रो, (अबै) करवा लागा राज।। यह बात ठीक भी है। आज प्रायः लोग ऐसे मोक्ष की ही भूख रखते हैं, लेकिन यह वास्तविक मोक्ष का मार्ग नहीं है, कदापि नहीं है। आकांक्षाओं का संयम • २२७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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