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उनमें से कोई-न-कोई विशिष्ट शक्ति-संपन्न भी है, अन्यथा अवस्वापिनीविद्या से वे अप्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते थे। वह कक्ष के कान लगाकर उनकी पारस्परिक बात सुनने लगा। उस समय कुमार जंबू अपनी परिणिताओं को संबोधित कर कह रहा था-'तुम रूपलावण्यसंपन्न अप्सराओं-जैसी लग रही हो, पर यह कोई सार की बात नहीं है। जीवन क्षणभंगुर है। आयुष्य वायु से चंचल बनी लहरों के समान अस्थिर है। धन-वैभव अशाश्वत है, विपद्ग्रस्त है। इंद्रिय-विषय नश्वर हैं, कटुकपरिणामी हैं, भले मोहोन्माद में व्यक्ति उनके आसेवन से क्षणिक तृप्ति महसूस करे। मित्र, स्त्री आदि स्वजनों के संगम से होनेवाला सुख स्वप्न के समान है। जिस प्रकार स्वप्न में बसी बस्ती आंखों के खुलते ही उजड़ जाती है, उसी प्रकार स्वार्थ के टूटने के साथ ही यह सुख समाप्त हो जाता है। संसार में कोई ऐसी चीज नहीं है, जो प्राणी के लिए आलंबन बन सके, आश्वासन बन सके। संयम और तप का समन्वित रूप धर्म एकमात्र व्यक्ति के लिए आलंबन है, आश्वासन है और इस अनंतकालीन भवभ्रमण से छुटानेवाला है। '
हालांकि यह उपदेश कोई नया नहीं है, तथापि उस समय वह प्रभावकारी बन गया। फिर जंबूकुमार के विरक्त हृदय से निकलकर वह
और भी अधिक प्रभावकारी एवं महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ। फलतः आठों ही पत्नियों का मानस-परिवर्तन हो गया। वे भी जंबूकुमार के साथ संयमजीवन स्वीकार करने के लिए तैयार हो गईं। इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी संकल्प किया कि हम अपने-अपने माता-पिता को भी सांसारिक भोगों का दुष्परिणाम एवं निस्सारता समझाकर उन्हें संयम-जीवन स्वीकार करने के लिए तैयार करेंगी। जंबूकुमार ने भी अपने माता-पिता को उसी मार्ग पर लाने का विचार व्यक्त किया।
प्रभव ने बात सुनी और सारी स्थिति समझी तो सहसा दंग रह गया। मन-ही-मन कहा-गजब का आदमी है! इतने धन से घिरा होकर भी उससे अनासक्त है! उसे त्यागने के लिए संकल्पबद्ध है! अप्सराओं-सी सुंदर आठ-आठ पत्नियों का स्वामी होकर भी संसार से विरक्त है! और एक मैं हं, जो धन के लोभ में चौर्यकर्म-जैसी जघन्य प्रवृत्ति में फंसा हआ हूं! मुझे अपने कुल और परिवार की प्रतिष्ठा का भी कोई ख्याल नहीं है! धिक्कार है मुझे!.....अब वह मौन नहीं रह सका। उसके मुंह से स्वर
आकांक्षाओं का संक्षेप
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