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लागू करने से पूर्व उसकी पृष्ठभूमि नहीं बनाई गई। आप जानते ही हैं कि कोई भी निर्माण पृष्ठभूमि पर खड़ा होता है। पृष्ठभूमि के अभाव में टिकता नहीं, गिर जाता है। यह व्यवस्था लागू करने से पूर्व पृष्ठभूमि निर्मित नहीं की गई, इसका परिणाम यह आया कि अधिकारों का दुरुपयोग होने लगा। पृष्ठभूमि से मेरा तात्पर्य आप समझते ही होंगे। अधिकार-प्राप्ति से पूर्व उसका उपयोग कैसे हो, कहां हो, इसका विवेक जागना बहुत आवश्यक है। यह विवेक जागे बिना जनतंत्र की कोई व्यवस्था सफल नहीं हो सकती।
भारतवर्ष आजाद हुआ। देश के नेताओं ने सत्ता अपने हाथों में संभाली। लोगों ने मान लिया कि हमें सब-कुछ प्राप्त हो गया। अब पाने के लिए कुछ भी अवशेष नहीं है। इस चिंतन के कारण लोगों की विवेकचेतना नहीं जागी। अधिकारों की चर्चा तो सब करने लगे, पर कर्तव्यपालन की बात विस्मृत-सी कर दी गया। अधिकारों के उपयोग में भी औचित्य की सीमा का ख्याल नहीं रहा। इसके दुष्परिणाम हम अपनी आंखों के सामने प्रत्यक्ष देख रहे हैं। कुर्सी की भूख : भस्मक रोग
जनतंत्र में चुनाव एक अनिवार्य प्रक्रिया है। जनता के मतों के आधार पर लोगों का चुनाव होता है, पर उसका जो रूप बना है, वह किसी से छिपा नहीं है। सात्त्विक वृत्तिवाला व्यक्ति सहजतया चुनाव में खड़ा होना तक नहीं चाहता। भ्रष्टाचार के रूप में राक्षसीवृत्ति दिन-पर-दिन प्रभावी होती जा रही है। कुर्सी की भूख उचित-अनुचित की सारी सीमाओं का अतिक्रमण करती चली जा रही है। मुझे तो ऐसा लगता है कि कुर्सी की भूख एक अपेक्षा से भस्मक व्याधि बन गई है। चाहे जितना भी खाओ, सब भस्म। इसके उपरांत भी भूख शांत नहीं होती।
पिछले दिनों जब मैं कुईखेड़ा गया, तब मुझे बताया गया कि यहां आज तक पंचायत का चुनाव नहीं हुआ। मुझे सुनकर प्रसन्नता हुई। मन में आया, जनतंत्र में सर्वत्र इस प्रकार का वातावरण बन जाए तो उसका रंग कुछ अलग ही हो। इससे चुनाव के इर्द-गिर्द पनपनेवाली बहुत-सी बुराइयों से सहज रूप से छुटकारा मिल सकता है। स्वप्रशंसा : परनिंदा
'चुनाव के समय एक बुराई व्यापक रूप में पनपती है-स्वप्रशंसा और
जाग्रत जीवन
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