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________________ भी करते हैं। चिंता के साथ-साथ निराशा का भाव भी स्पष्ट प्रतिध्वनित होता है। मैं उनसे कहना चाहता हूं कि चिंता किसी बीमारी का इलाज नहीं है, निराशा किसी समस्या का समाधान नहीं है। आशान्वित रहते हुए चिंतन करने से ही किसी समस्या का समाधान पाया जा सकता है। मैंने इसी भूमिका पर अवस्थित होकर इस समस्या का समाधान पाया है। मेरे चिंतन से इस समस्या का समाधायक सूत्र है-अनुरागाद् विरागःअनुराग से विराग। एक तत्त्व के प्रति अनुराग हो जाए तो दूसरे के प्रति स्वतः विराग पैदा हो जाता है। एक चीज के प्रति आकर्षण पैदा हो जाए तो दूसरी चीज के प्रति अनायास विकर्षण हो जाता है। एक व्यक्ति उपदेश से शराब नहीं छोड़ रहा है, पर उसका साथी जब उसके मन में ठंडाई के प्रति आकर्षण पैदा कर देता है, तब उस आकर्षण के कारण उसकी शराब अपने-आप छूट जाती है। आज की स्थिति के प्ररिप्रेक्ष्य में यह सूत्र अत्यंत प्रभावी बन सकता है। हम अणुव्रत के प्रति जन-आकर्षण पैदा करें। अणुव्रत के प्रति आकर्षण पैदा होने का अर्थ है-सदाचार के प्रति आकर्षण पैदा होना, नैतिकता और प्रामाणिकता के प्रति आकर्षण पैदा होना, अच्छाइयों के प्रति आकर्षण पैदा होना। इस आकर्षण के पैदा होने से भ्रष्टाचार, अनैतिकता आदि के प्रति सहज ग्लानि पैदा हो जाएगी। ग्लानि पैदा होने के बाद किसी गलत संस्कार का छूटना बहुत सरल हो जाता है। शब्दांतर से कहूं तो अणुव्रत के प्रति आकर्षण पैदा होने का तात्पर्य है त्याग और संयम के प्रति आकर्षण पैदा होना, अध्यात्म के प्रति आकर्षण पैदा होना। जहां त्याग और संयम के प्रति आकर्षण पैदा होता है, अध्यात्म के प्रति आकर्षण पैदा होता है, वहां भोग के प्रति अनाकर्षण स्वतः फलित हो जाता है, विरक्ति का भाव सहज रूप से जाग जाता है। इस स्थिति में अशांति और दुःख को टिकने का कोई अवकाश भी नहीं बचता। हम साधु-संत लोग सुख और शांति का जीवन जीते हैं। इसका राज यही तो है कि हम त्याग का जीवन जीते हैं, संयम की साधना करते हैं, अध्यात्म के पथ पर अपने चरण गतिशील करते हैं। __ मैं मानता हूं, पूर्ण भोगविरति की बात एक गृहस्थ के लिए व्यावहारिक नहीं है। संपूर्ण आध्यात्मिक जीवन जीना उसके लिए संभव नहीं है। वह एक सीमा तक ही संयम को अपना सकता है, आंशिक रूप में .२०० - आगे की सुधि लेइ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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