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अध्ययन में अहिंसा, सत्य और प्रामाणिकता की बातें नहीं सिखाई जाएंगी, तब तक विद्या की सार्थकता सिद्ध नहीं होगी। इसी प्रकार शिक्षा के साथ अनुशासन की बात जुड़नी चाहिए। सचमुच बच्चे देश की शान हैं। देश को उन पर अभिमान है, पर जब तक वे अनुशासित नहीं होंगे, तब तक देश का नाम उज्ज्वल नहीं हो सकेगा। विद्यार्थीवर्ग और सुसंस्कार
आजकल विद्यार्थियों पर अनुशासनहीनता का दोषारोपण किया जाता है, पर इसके लिए केवल विद्यार्थी दोषी नहीं हैं, क्योंकि उनका दायित्व रहता है अभिभावकों पर। अभिभावकवर्ग उनकी तरफ से लापरवाह रहे तो उनके जीवन में अनुशासनप्रियता का संस्कार कैसे आ पाएगा? फिर उन पर अनुशासनहीनता के एकांगी दोषारोपण का क्या औचित्य है? यही बात दूसरे-दूसरे गलत संस्कारों के संदर्भ में भी लागू होती है।
मैं पूछना चाहता हूं कि क्या बच्चे माता-पिता की संपत्ति नहीं हैं; यदि हैं तो दूसरी-दूसरी प्रकार की संपत्ति की सुरक्षा की तरह इस संपत्ति की सुरक्षा क्यों नहीं हो रही है, क्यों इतनी लापरवाही बरती जा रही है; क्यों यह समझ लिया जाता है कि स्कूल में दाखिला करा देने के पश्चात बच्चे के प्रति हमारा दायित्व पूरा हो गया है। मेरी दृष्टि से यह सोच-समझ सम्यक नहीं है। यह ठीक है कि बच्चे को स्कूल में दाखिल करवा देने से उसके प्रति माता-पिता का एक दायित्व पूरा हो जाता है, पर बच्चे के प्रति उनका यही तो एक दायित्व नहीं है, और भी तो बहुत-से दायित्व हैं। क्या समय-समय पर अध्यापकों से मिलकर बच्चे के संस्कार, चरित्र, व्यवहार और पढ़ाई के संदर्भ में जांच-पड़ताल करना, कहीं कमी हो तो उचित कदम उठाना उनका दायित्व नहीं है? पर मैं देखता हूं कि ज्यादातर माता-पिता इस दृष्टि से उपेक्षा बरतते हैं। पूरे वर्ष में शायद एक बार भी अध्यापकों से इस परिप्रेक्ष्य में नहीं मिलते। हां, पढ़ाई में कमजोर रहनेवाले विद्यार्थियों के कुछ अभिभावक अवश्य परीक्षा के दिनों में अध्यापकों से मिलते हैं, पर इस मिलने का उद्देश्य आप समझते ही हैं। बच्चे की डगमगाती नैया को वे जैसे-तैसे पार लगाना चाहते हैं, अध्यापकों को खेवणहार बनाना चाहते हैं।
अध्यापक जब यह कार्य अनैतिक बताते हैं, तब वे कहते हैं'नैतिकता की बातों में ज्यादा सार नहीं है। आजकल सब काम ऐसे ही चलते हैं। आप मेहरबानी रखें। देखिए, आपका और हमारा बहुत पुराना विद्याध्ययन : क्यों : कैसे
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