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अपेक्षा है। इस जन्मना धर्म या जातिगत धर्म के स्थान पर संस्कारगत धर्म या जीवनगत धर्म को बल देना होगा। जब तक जीवनगत धर्म की बात मूल्य नहीं पाती, तब तक वह हमारा बहुत हित नहीं कर सकता। वस्तुतः धर्म का संबंध आस्था से है। जन्म से उसका कोई संबंध है ही नहीं। वह तो समझ-बूझकर स्वीकार करने का तत्त्व है। समझ-बूझकर स्वीकार किया जानेवाला धर्म की आत्मगत हो सकता है। जहां आत्मगत होने की बात नहीं होती, वहां वह मात्र मोहर/छाप से अधिक नहीं होता। यीशु को शूली क्यों मिली
चर्च में खड़ा एक पादरी बहुत-से लोगों को ईसाई धर्म के बारे में समझा रहा था। आज फादर उनका परीक्षण करने के लिए आनेवाले थे, इसलिए ईसाई धर्म और क्राइस्ट के बारे में उन्हें समझा दिया गया। कुछ देर बाद फादर आए और उन्होंने पूछा-'ईसाई धर्म कैसा है?' सभी एक स्वर में बोले-'बहुत अच्छा है।' फादर ने प्रश्न किया-क्या आपका विश्वास इसमें है?' वे बोले-'हां।' फादर ने पूछा- क्या आप इसे स्वीकार करेंगे?' वे लोग बोले- अवश्य करेंगे।' फादर ने प्रश्न किया--'ईसाई धर्म के प्रणेता कौन थे ?' उन लोगों ने उत्तर दिया-'यीशु क्राइस्ट।' फादर ने अगला प्रश्न किया-'उन्हें शूली की सजा क्यों हुई?' उन लोगों ने कहा-'किसी का खून कर दिया होगा!'
लोगों का यह उत्तर फादर को बहुत बुरा लगा, पर इसमें उन लोगों का क्या दोष ? पूछी गई और सारी बातें तो उन्हें पहले से याद करवा दी गई थीं, इसलिए उनका सही-सही उत्तर उन्होंने दे दिया, पर यीशु को शूली की सजा क्यों हुई, इस बारे में उन्हें कुछ भी नहीं बताया गया था। तब वे सही उत्तर कैसे देते?
बंधुओ! यह केवल ईसाई धर्म की बात नहीं है, बल्कि सभी धर्मों की यही बात है। धर्म जहां रटा-रटाया होता है, बिना समझे, बिना चिंतन किए स्वीकार किया हुआ होता है, वहां ऐसी स्थिति का बनना बहुत स्वाभाविक है। इसलिए अपेक्षा इस बात की है कि धर्म को अपने विवेक से अच्छी तरह समझकर स्वीकार करना चाहिए, चिंतनपूर्वक अंगीकार करना चाहिए। यह आत्मगत धर्म ही जीवन के लिए वरदान साबित होता है।
जैसाकि मैंने कहा, जैन-धर्म ने धर्म को आत्मगत बनाने की बात बताई है, पर विडंबना यह है कि जैन लोग स्वयं ही यह बात भूल रहे हैं!
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- आगे की सुधि लेइ
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