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पदार्थों का सेवन करके पागल बनते हैं। तंबाकू तो मानो संन्यास का एक अंग ही बन गया है।
मैं अवाक रह गया
मैं उत्तर प्रदेश की यात्रा पर था। उस दौरान एक दिन एक संन्यासी मेरे पास आया और बोला- ' बाबाजी ! तंबाकू लाइए।' मैंने कहा - 'हम तंबाकू न तो रखते हैं और न पीते ही हैं।' संन्यासी के लिए यह अजूबा था । वह बोला- 'अच्छे बाबा बने! अपने पास तंबाकू भी नहीं रखते !"
सुनकर मैं अवाक रह गया। मन में विचार आया कि साधु-संत स्वयं जब नशीले और मादक पदार्थ काम लेने लग गए तो वे जन-साधारण को क्या समझाएंगे। पर यह बात आज ही है, ऐसी बात भी नहीं है। प्राचीन काल में भी कुछ तथाकथित साधु-संत इस बुराई के शिकार होते थे । कुछ तो शराब तक पी लेते थे। इसी लिए दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है• वड्ढई सोंडिया तस्स, मायामोसं च भिक्खुणो । अयसो य अनिव्वाणं, सययं च असाहुया ॥ • निच्चुव्विग्गो जहा तेण अत्तकम्मेहि दुम्मई । संवरं ॥
तारिसो मरणंते वि, नारा
शराब का सेवन करनेवाले भिक्षु के उन्मत्तता, माया - मृषा, अयश, अतृप्ति और सतत असाधुता ये रोग बढ़ते हैं। वह चोर की भांति उद्विग्न रहता है। और तो क्या, वह मरणांत काल में चारित्र की आराधना नहीं कर सकता।
सीधी भाषा में कहा जाए तो मद्य का सेवन करनेवाला साधु बहुत बड़ा पापी होता है। इस बुराई के द्वारा वह अपने सौभाग्य की नींव खोदता है, अपने लिए नरक तैयार करता है । इसलिए किसी साधु को मद्य का सेवन नहीं करना चाहिए।
बुराई सदा बुराई है
इस संदर्भ में एक बात बहुत गंभीरता से समझने की है। प्राचीन काल से यह प्रवृत्ति चली आ रही है, इस कारण यह बुराई नहीं है, ऐसा मानना भयंकर भूल हैं। बुराई तो हर युग में बुराई ही रहती है। उसके घातक परिणाम तो भोगने ही होते हैं। हम ग्रंथों में पढ़ते हैं कि यादवों का विनाश इसी मद्यपान के दुर्व्यसन के कारण हुआ था।
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