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________________ और विभिन्न युक्तियों एवं तर्कों से उसे सिद्ध करने का प्रयत्न करता रहता है । दूसरे की बात समझने का प्रयत्न ही नहीं करता । दुराग्रही वह होता है, जो न तो स्वयं तत्त्व समझता है और न दूसरों को समझाने की कला जानता है। बस, अपनी बात पर अड़ा रहता है। 'धरती का बीच वही है, जो मैं मानता हूं । विश्वास न हो तो माप कर देख लो।' इस प्रकार की बुद्धि रखनेवाला व्यक्ति सत्य तक नहीं पहुंच सकता । आज भी तीनों प्रकार के व्यक्ति हमें मिलते हैं। अनाग्रही अपने विवेक को अभिव्यक्ति देते हैं । आग्रही एक हद तक समझकर चलते हैं, पर इन दोनों कोटियों के व्यक्ति कम ही होते है। अधिकतर व्यक्ति तो दुराग्रही ही होते हैं। आत्मा का स्वरूप मैं आत्मा के बारे में आपको प्रामाणिकता और निष्ठापूर्वक बता रहा हूं। मुझसे कोई यह पूछ सकता है कि क्या आपने आत्मा को आंखों से देखा है। इसका समाधान यह है कि आत्मा आंखों से देखने की चीज नहीं है। मैं आत्मा का जो स्वरूप बता रहा हूं, वह उसका एक अंग है। दूसरेदूसरे अंग सामने आ जाएं तो स्वरूप पूर्ण हो सकता है। मेरी दृष्टि में आत्मा ज्योतिर्मय, ज्ञानमय और शक्तिमय पिंड है। पुरुष, आत्मा, चेतन, क्षेत्रज्ञ आदि आत्मा के पर्यायवाची शब्द हैं। परमात्मा आत्मा का संपूर्ण विकसित रूप है। आत्मा की अनंत अवस्थाएं हैं। हम दस-बीस अवस्थाएं देख सकते हैं, पर अनंत अवस्थाएं हमारे ज्ञान का विषय नहीं बन सकतीं। सूक्ष्मातिसूक्ष्म यंत्र भी सब अवस्थाएं नहीं पकड़ सकता। परमात्मा बनने की प्रक्रिया आत्मा तब तक परमात्मा नहीं बन सकती, जब तक वह जन्म - मृत्यु की परंपरा से मुक्त नहीं हो जाती। जीवन में ऐसे अवसर भी आते हैं, जब आत्मा को ज्ञान हो जाता है, उसकी विवेक चेतना जग जाती है, भेदविज्ञान के द्वारा उसे आत्मान्यः पुद्गलश्चान्यः की सचाई का ज्ञान हो जाता है। शरीर और आत्मा का सर्वथा संबंध-विच्छेद होने से ही उसका ( आत्मा का) मूल रूप यानी शुद्ध स्वरूप प्रकट होता है। आत्मा और शरीर की सर्वथा विच्छिन्नता की इस भूमिका में पहुंचने के लिए आत्मा और पुद्गल Jain Education International For Private & Personal Use Only १४३ • www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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