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________________ बंधुओ! आपका भय भी प्रमादजन्य है। आपमें से ज्यादातर लोग व्यापारी हैं। व्यापारी अपने बही-खातों के बारे में सदा भयभीत रहते हैं कि कहीं तलाशी न हो जाए। प्रमाद न हो तो हर व्यक्ति अभय हो जाता है। अभय प्रामाणिकता है। प्रामाणिकता की जितनी कमी होती है, व्यक्ति उतना ही भयभीत रहता है। विरक्त ऋषियों ने तो संसार के हर तत्त्व में भय देखा है। भर्तृहरि ने कहा है भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद् भयं, मौने दैन्यभयं गुणे खलभयं रूपे जरायाः भयम्। शास्त्रे वादभयं बले रिपुभयं काये कृतान्ताद् भयं, सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्॥ अभय का मार्ग है-वैराग्य, पर वैराग्य का अर्थ संन्यासी होना ही नहीं है। व्यक्ति किसी स्थिति में रहता हुआ वैराग्य की साधना कर सकता है। वैराग्य का अर्थ है-अनासक्ति। अनासक्ति का फल है-अहिंसा। आगमों में अहिंसा को अभय बताया गया है। अहिंसा और अभय पर्यायवाची शब्द हैं। पता नहीं कि किन व्यक्तियों की करतूतों ने अहिंसा को कायर और कमजोर व्यक्तियों का हथियार बना दिया। अहिंसा वीरों का कर्तव्य है। जो व्यक्ति स्वयं भयभीत रहता है, वह हिंसक है। इसी प्रकार जो औरों को भयभीत बनाता है, वह भी हिंसक है। अतः जो व्यक्ति अभय बनना चाहता है, वह पहले औरों को अभय दे। फिर उसे भी किसी प्रकार का भय नहीं होगा। राजा संजय शिकार करता था। निरीह पशुओं को मारकर स्वयं को वीर मानता था। एक दिन शिकार के लिए जंगल में गया। एक हरिण को लक्ष्य बनाकर उसने तीर छोड़ा। निशाना अचूक था। वह मृग के लगा और वह ढेर हो गया। राजा शिकार को संभालने के लिए उधर आया। उसने देखा, मृग मुनि के चरणों में पड़ा है। उस समय वैदिक संन्यासी अपनेअपने तपोवन में मृग पालते थे। कोई व्यक्ति तपोवन के मृग को कष्ट देता, वह मुनि की कोप-दृष्टि से बच नहीं सकता था। _ 'मनि के कोप का परिणाम है-सर्वनाश !' यह सोचकर राजा संजय के हथियार ढीले हो गए। शरीर से पसीना छूटने लगा, पर मन को थोड़ा मजबूत करके वह मुनि के निकट आया और अपना अपराध स्वीकार करता हुआ क्षमायाचना करने लगा। मुनि ध्यानस्थ खड़े थे। उनका नाम गर्दभाली - आगे की सुधि लेइ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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