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२२ : जनतंत्र और धर्म
भय क्या है
आज सारा संसार भयाकुल है, आतंकित है, संत्रस्त है। प्रश्न होता है कि भय क्या है। इस प्रश्न के उत्तर में आज से ढाई हजार वर्षों पूर्व भगवान महावीर ने कहा था- दुक्खभया पाणा । यानी व्यक्ति को सबसे बड़ा भय है कि मुझे किसी प्रकार की पीड़ा, कष्ट या दुःख न हो जाए । वर्तमान में अनुकूलता न हो तो मनुष्य भयभीत हो जाता है। इसी तरह भविष्य के लिए आशंका भी भय है। राजनयिक इस बात के लिए आशंकित हैं कि सत्ता हमारे हाथ से निकल न जाए। पूंजीपति इस बात के लिए आशंकित हैं, हमारी पूंजी खत्म न हो जाए। इस प्रकार भय का वातावरण बना रहता है।
भय : उत्स और अंत
भय पैदा क्यों होता है ? इसका सर्जक कौन है ? भय परोपार्जित नहीं, स्वोपार्जित है । भय उत्पन्न होता है प्रमाद से। जो व्यक्ति जितना अधिक प्रमादी होता है, वह उतना ही अधिक भयभीत रहता है।
भय कैसे मिटे ? क्या इसे मिटाने के लिए कोई फरिश्ता आकाश से उतरेगा ? गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य, तदात्मानं
सृजाम्यहम् ॥
जब-जब धर्म का ह्रास और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं इस धरती पर अवतरित होता हूं।
लेकिन भगवान महावीर ने कहा कि भय का नाशक मनुष्य स्वयं होगा । जिस दिन अप्रमाद की स्थिति आ जाएगी, प्रमाद समाप्त हो जाएगा, उस दिन भय भी खत्म हो जाएगा; और जब भय का अंत हो जाएगा, तब दुःख भी स्वयं समाप्त हो जाएगा !
जनतंत्र और धर्म
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