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इतिहास की भावना रहती है, वहीं त्याग में आत्मविकास की भावना की प्रधानता रहती है।
हां, तो मैं आपसे परिग्रह के बारे में बता रहा था। हालांकि इस सचाई से परिचित होकर भी कि परिग्रह दुःख का मूल है, सब अपरिग्रही नहीं हो सकते, तथापि आसक्ति में कमी कर सकते हैं। गांधीजी ने कहा कि हर व्यक्ति स्वयं को संपत्ति का ट्रस्टी समझे। यह भावना व्यक्ति को अनासक्ति के निकट लाती है। धार्मिक व्यक्ति को यह समझकर आसक्ति में कमी करनी चाहिए कि अपने कर्मों का भोक्ता मैं स्वयं हूं; बुराई का फल मुझे ही भोगना पड़ेगा, फिर मैं आसक्त क्यों बनूं।
अपरिग्रह शाश्वत मूल्य है और शांति का साधन है। अपरिग्रह के बिना शांति कभी हो नहीं सकती। आप अणुव्रत प्रार्थना में गाते ही हैं
अपरिग्रह, अस्तेय, अहिंसा सच्चे सुख के साधन हैं। सुखी देख लो संत अकिंचन संयम ही जिनका धन है। उसी दिशा में दृढ़ निष्ठा से क्यों नहीं कदम उठाएं हम? आत्म-साधना के सत्पथ में अणुव्रती बन पाएं हम॥ बड़े भाग्य हे भगिनि! बंधुओ! जीवन सफल बनाएं हम॥
अपरिग्रह, अस्तेय और अहिंसा-ये सच्चे सुख के साधन हैं। यही वजह है कि सब सुविधाओं को पाकर भी आप उतने सुखी नहीं हैं, जितने सुखी सब सुविधाएं छोड़कर हम हैं।
मुझे आश्चर्य होता है कि लोग शांति की चाह तो करते हैं, पर सही मार्ग पकड़ना नहीं चाहते! सही मार्ग पकड़े बिना मंजिल कैसे मिल सकती है? शांति का मार्ग पकड़े बिना उसकी प्राप्ति कैसे हो सकेगी? हम साधुसंत लोग अनिर्वचनीय शांति की अनुभूति करते हैं, यह अपरिग्रह का ही परिणाम है। बंधुओ! आप भी अपरिग्रह का सूत्र अपनाएं, अनासक्ति का जीवन जिएं। निश्चय ही आपको शांति और सुख की उपलब्धि होगी।
हनुमानगढ़ २० मार्च १९६६
शांति का मार्ग अपरिग्रह
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