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________________ नहीं होता। इसलिए वास्तविक भिक्षा-विधि की जानकारी आवश्यक है। जो साधु बनकर भी स्वयं को मठाधीश मानते हैं, बैंक से अपना संबंध रखते हैं, वे सही माने में अपरिग्रही नहीं हैं। मैं आप लोगों से पूछना चाहता हूं कि आप साधुओं को पैसा क्यों देते हैं, क्या उनके बाल-बच्चे कुंवारे बैठे हैं, जो उन्हें पैसों की जरूरत पड़ती है। नए आदमी हमारे पास आते हैं, तब नोट निकालकर भेंट करते हैं। उसका आधार है-रिक्तपाणि न पश्येत्, राजानं दैवतं गुरुम्। अर्थात राजा, देव और गुरु के दर्शन खाली हाथ नहीं करने चाहिए। यह एक मान्यता/परंपरा रही है, पर जैन-साधुओं की परंपरा इससे सर्वथा भिन्न है। वे न तो पैसा लेते हैं और न ही रखते हैं। हम उन्हें अपनी परंपरा समझाते हैं तो वे कहते हैं कि ये पैसे आप कहीं लगा दीजिए। मैं उनसे कहता हूं कि आपको यदि पैसे लगाने ही हैं तो साधुओं को प्रपंच में क्यों डालते हैं। साधु को पैसा देना पाप है और साधुओं द्वारा पैसे का संग्रह करना महापाप है। गुरु और शिष्य दोनों ही परिग्रही हों तो उन्हें डूबने से कोई कैसे बचा सकता है? कवि ने कहा है गुरु लोभी शिष लालची, दोनूं खेलै दाव। दोनूं डूबै बापड़ा, बैठ पत्थर की नाव॥ परिग्रह क्या है क्या आप जानते हैं कि वास्तव में परिग्रह क्या है ? संसार की जितनी भी चीजें हैं, वे सभी जड़ हैं। उनके प्रति व्यक्ति का जो श्लेष, लालसा, आसक्ति या मूर्छा है, वह परिग्रह है। मैं जहां रहता हूं, सोता हूं, वहां एक तिजोरी पड़ी है, पर उससे मैं परिग्रही नहीं होता। इसके विपरीत यदि मेरे मन में आसक्ति है तो मैं परिग्रही बन जाता हूं, भले वहां एक पैसा भी न हो। और तो क्या, शरीर पर जो ममता होती है, वह भी परिग्रह ही है। कुछ लोग मुझसे पूछते हैं कि दान करें या नहीं। मैं उनसे कहता हूं कि आप दान की बात मुझसे क्यों पूछते हैं। मूलतः यह आपकी इच्छा या भावना से जुड़ा हुआ प्रश्न है। वैसे सिद्धांत रूप में मैं ऐसा मानता हूं कि दान एक प्रकार का विनिमय है। उसमें नाम का महत्त्व रहता हैं। मैं दान के स्थान पर त्याग को महत्त्व देता हूं। क्यों? यह इसलिए कि त्याग में ममत्व का विसर्जन हो जाता है। जहां दान में प्रतिष्ठा, ख्याति, यादगार और .१२६ - आगे की सुधि लेइ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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