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________________ रक्षा का दायित्व भी हम पर ही है; इस दायित्व को निभाने के लिए हमें हिंसा भी करनी पड़ सकती है, हमने अहिंसा का अणुव्रत स्वीकार किया है, महाव्रत नहीं। यह वस्तुस्थिति बताने के बाद किसी को कहने का अवकाश नहीं मिलेगा। अतिवाद के कारण ही लोगों को अन्यथा सोचने का अवसर मिलता है।' नौ प्रकार का परिग्रह शास्त्रों में नव प्रकार के परिग्रह का उल्लेख है१. क्षेत्र-खुली भूमि। २. वस्तु-मकान आदि। ३. धन-जो गिना जाए (जैसे-नारियल), तौला जाए (जैसेकिराना), मापा जाए (जैसे-वस्त्र) और परखा जाए (जैसे जवाहरात)। ४. धान्य-हर प्रकार का अनाज। ५. द्विपद-पक्षी, नौकर-चाकर आदि। ६. चतुष्पद-पशुधन, जैसे-गाय, भैंस, घोड़ा आदि। ७. हिरण्य-चांदी। ८. सुवर्ण-सोना। ९. कुप्य-गृहोपस्कर, भांड-बरतन आदि। नव प्रकार की इन वस्तुओं का संग्रह करना, करवाना और अनुमोदन करना तीनों ही विकल्प परिग्रह की कोटि में हैं। एक अपरिग्रही व्यक्ति इनका सर्वथा परित्याग करता है। जो संपूर्ण अपरिग्रही बनने की क्षमता नहीं रखता, वह परिग्रह की सीमा करता है। परिग्रह का सीमाकरण जैन-धर्म में श्रावक के लिए अपने परिग्रह की सीमा करने की पद्धति रही है। जैसे इतने रुपए, इतने मकान, इतने वस्त्र, इतने आभूषण से अधिक मैं अपने स्वामित्व में नहीं रखूगा। कुछ लोग हास्यास्पद त्याग करते हैं। पास में तो हजार रुपए भी नहीं हैं और कहते हैं कि एक करोड़ से ज्यादा का संग्रह करने का त्याग है। जनसाधारण में ऐसे त्याग की विडंबना हो जाती है। मूल बात यह है कि आकांक्षा और आवश्यकता का .१२४ - आगे की सुधि लेइ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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