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सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःखभाग् भवेत्॥
वे सबके मंगल व कल्याण की कामना करते हैं। किसी प्राणी का अमंगल नहीं चाहते, अकल्याण नहीं चाहते। किसी को दुखी देखना नहीं चाहते। वस्तुतः जहां व्यक्ति के स्व का इतना विस्तार हो जाता है कि वह सभी को अपना देखने लगता है, आत्मतुल्य समझने लगता है, वहां किसी व्यक्तिविशेष के प्रति अकल्याण की भावना वह कर भी नहीं सकता। मूलतः अकल्याण का उत्स पराएपन की भावना है। जहां बीज ही नहीं है, वहां वृक्ष कैसे उगेगा? फिर जहां किसी के प्रति पराएपन की भावना ही नहीं है, वहां किसी के प्रति अपनेपन-ममत्व की बात भी नहीं होती। ____ हम संत लोग हैं। हम लोग रजोहरण, पात्र, चद्दर आदि कई प्रकार के उपकरण अपने पास रखते हैं, पर इनके लिए कोई साधु यह नहीं कह सकता कि ये मेरे हैं। ऐसा कहना दोषपूर्ण है। निर्दोष भाषा है-'ये चीजें मेरे काम आती हैं या ये चीजें मेरी निश्रा में हैं।' दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है-अवि अप्पणो वि देहम्मि, नायरंति ममाइयं-शरीर भी जब हमारा नहीं है, तब दूसरी वस्तुएं तो हमारी होंगी ही कैसे? शरीर से हम जुड़े हुए अवश्य हैं, पर तत्त्वतः शरीर हमारा नहीं है। मात्र शरीर का हम उपयोग कर रहे हैं। प्राचीनकाल में बड़े घरों में धायमाता रखी जाती थी। आजकल भी किसी-किसी घर में होती है। वह बच्चे को खिलाती है, पिलाती है, नहलाती है"उसके सारे कार्य करती है। पर मन में अच्छी तरह से समझती है कि बच्चा मेरा नहीं है। मैं मात्र इसकी प्रतिपालना कर रही हैं। ठीक यही बात हम साधुओं की है। चूंकि शरीर हमारी साधना में सहयोगी है, इसलिए हम इसे उपयोग में लेते हैं, इसकी सार-संभाल करते हैं, इसे पोषण देते हैं, पर निश्चय में शरीर हमारा नहीं है, इसलिए इस पर हमारा ममत्व नहीं होना चाहिए।
___ बंधुओ! यह ममत्व ही संसार में परिभ्रमण का मूल कारण है। शब्दांतर से हम कह सकते हैं कि ममत्व संसार है, अनासक्ति मोक्ष है। जितना-जितना व्यक्ति अनासक्त बनता जाता है, उतना-उतना वह मोक्ष के नजदीक पहुंचता जाता है। यह आसक्ति ही व्यक्ति के महात्मा और परमात्मा बनने में सबसे बड़ी बाधा है। छोटा आदमी आसक्ति में फंसा रहता है, इसलिए संकीर्णता की बात करता है। और तो और, वह भगवान
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आगे की सुधि लेइ
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