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हूं। बस, दिन में दुकान जाता हूं, उतने समय नहीं मिलता।' रामकृष्ण ने कहा-'मैंने कहा ना, अपना बिलकुल स्थायी पता लिख कर दो, किसी समय भगवान के यहां से मिलने का संदेश मिल सकता है।' इस बार उस व्यक्ति ने अपनी दुकान का पता उस कागज पर और लिख दिया। रामकृष्ण ने कागज देखकर वही प्रश्न दुहराया-'यह तो तुम्हारा स्थायी पता है ना?' वह व्यक्ति बोला-'हां, ये दोनों मेरे स्थायी पते हैं। इन दोनों स्थानों में से किसी एक स्थान पर मैं अवश्य मिलता हूं। केवल कभी-कभार विशेष प्रयोजनवश अपने गांव जाना पड़ता है, तब यहां नहीं मिलता।' रामकृष्ण ने जरा तेज स्वर में कहा-'तब स्थायी पता कहां हुआ ? मैं तो वह स्थायी पता चाहता हूं, जहां तुम प्रतिक्षण मिल सको।'
इस प्रकार उस व्यक्ति ने जितनी बार अपना पता लिख कर दिया, रामकृष्ण ने उसे स्थायी पते के रूप में स्वीकार नहीं किया। वे स्थायी पते के इस क्रम में इस जन्म से पहले का और मृत्यु के बाद का पता भी पूछने लगे। वह व्यक्ति बोला-'महात्माजी ! यह मैं कैसे बता सकता हूं! यह तो बहुत कठिन काम है।' छूटते ही रामकृष्ण ने कहा-'यह कठिन है तो क्या भगवान से मिलना सहज है? जब तुम स्वयं को ही नहीं जानते, अपना अस्तित्व ही नहीं पहचानते, तब भगवान को कैसे जानोगे; उससे कैसे मिल सकोगे? यदि भगवान से मिलना है, उसके दर्शन करने हैं तो पहले स्वयं से मिलो, स्वयं के दर्शन करो। स्वयं की पहचान ही तुम्हें प्रभु की पहचान करा सकेगी। आत्मा ही परमात्मा है
उस व्यक्ति को अंतर्बोध मिला। उसकी परमात्म-दर्शन की भावना आत्म-दर्शन की भावना में ढल गई। बंधुओ! आप भी यदि परमात्मा के दर्शन करना चाहते हैं, तो यह हृदयंगम कर लें कि आपको आत्मदर्शन करना होगा, स्वयं को जानना होगा, स्वयं का अस्तित्व पहचानना होगा। जिस दिन आप इस शिखर पर पहुंच जाएंगे, फिर परमात्म-दर्शन की आपकी ललक स्वयं पूरी हो जाएगी। उसके लिए आपको कोई अतिरिक्त प्रयत्न नहीं करना होगा, कोई अतिरिक्त तपस्या और साधना नहीं करनी होगी; और बहुत सही तो यह कहना होगा कि आत्मा का अनावृत रूप ही परमात्मा है। हर आत्मा अपने शुद्ध चैतन्यस्वरूप में परमात्मा है। आप जिस दिन, जिस क्षण अपना वह चैतन्यस्वरूप जानने लगेंगे, उसे प्राप्त
- आगे की सुधि लेइ
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