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आज सबको मजहब की चिंता है, धर्म की नहीं। जैन, सनातन, बौद्ध, सिक्ख..."की संख्या बढ़े, यह सोचा जाता है, लेकिन धर्म के विकास के बारे में सोचनेवाले बहुत कम हैं। मूलतः चिंतन का विषय होना चाहिए धर्म। मजहब तो धर्म के पीछे चलते हैं। मजहब बल्बों के समान हैं, जो कि सीमित दायरे में प्रकाश करते हैं। धर्म सूर्य के समान है। उसके आलोक में सारा संसार आलोकित हो जाता है। ___यद्यपि संप्रदाय बुरे नहीं होते, पर मूल को भूलकर संप्रदायों का पोषण करना बहुत बड़ी भूल है। मेरी समझ है कि मजहब की बातें करेंगे तो नतीजा अच्छा नहीं होगा, क्योंकि प्रबुद्ध मानस संकीर्णता की बातें सुनना पसंद नहीं करता। यदि हम अपना दायरा संकीर्ण रखेंगे तो हिंदूमुसलमानों की तरह दूसरे-दूसरे धर्म-संप्रदायों में भी परस्पर संघर्ष की स्थिति बन सकती है। हिंदू : भारतीय का वाचक
हिंदू शब्द के संदर्भ में मेरे सामने कई बार प्रश्न आता है। मैं मानता हूं कि हिंदू शब्द को वैदिक धर्म के साथ जोड़कर संकीर्ण बना दिया गया है। इसलिए करोड़ों मुसलमान इसके विपक्ष में खड़े हैं। यदि हिंदू शब्द को भौगोलिक परिवेश के साथ जोड़ा जाता है, इसका अर्थ भारतीय किया जाता है तो जैन, बौद्ध, सिक्ख, ईसाई और करोड़ों मुसलमान भी अपने-आपको हिंदू कहेंगे। पर लोगों ने मजहब को महत्त्व देकर मूल तत्त्व भुला दिया। यही वजह है कि इस नाम पर अनेक विवाद खड़े हो रहे हैं। धर्म विकसित हो रहा है
सापेक्ष दृष्टि से देखा जाए तो धर्म के क्षेत्र में आज भी भारत पीछे नहीं है। आज भी यहां धर्म का निखरा रूप देखने का मिलता है। वैसे पापाचरण इस कलियुग में हुआ है, हो रहा है, पर सत्युग में नहीं हुआ, ऐसी बात भी नहीं है। और ऐसा भी कहूं तो कठिनाई नहीं कि सत्युग में जैसा पापाचरण हुआ, वैसा शायद आज नहीं होता है। राजा रावण-जैसा व्यक्ति आज नहीं मिलेगा, जिसने कि राम की पत्नी सीता का अपहरण करने का दुस्साहस किया था। मुझे तो लगता है कि कई दृष्टियों से आज विकास अच्छा हो रहा है। सह-अस्तित्व की भावना पनप रही है। रूस
और अमेरिका एक स्थान पर बैठकर बातचीत कर रहे हैं। यह धर्म के विकास का पुष्ट प्रमाण है।
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