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________________ मिला है, लेकिन यहां आदर्श की बातें जितनी अधिक हुईं, व्यवहार में उतनी ही कम रह गईं, जबकि दूसरे-दूसरे देशों में आदर्श को व्यवहार्य अधिक बनाया गया। यहां का एक छोटा बच्चा भी एकं ब्रह्म द्वितीयं नास्ति-यह दार्शनिक परिचर्चा बड़े चाव से करता है। कल मैं माधोसिंघाना में था। वहां जमींदार औरतें आकर बैठ गईं और बोलीं-'हम तो आपको अपनाती हैं पर आप -हमको भूल मत जाना। हमने आपको गुरु बनाया है तो आप हमारे घर तो पवित्र कर दीजिए।' बहिनों के अनुरोध पर मैं ग्राम के घरों में गया। मैंने पूछा-'क्या ये घर आपके हैं ?' मेरे इस प्रश्न के उत्तर में उन बहिनों ने कहा-'घर हमारे किसके हैं, घर तो भगवान के हैं। हम तो भगवान के चलाए चलती हैं। उनके मुंह से पुराण, गीता, गायत्री आदि के वाक्य सुनकर तो मैं दंग रह गया। मेरे मन में संवेदना जगी-भारत का जन-जन दार्शनिक है। पर वह अपनी फिलॉसफी को जीवन-व्यवहार में नहीं लाता है। मैं जहां तक सोचता हूं, इस कमी के कारण धर्माधिकारी लोग हैं। उन्होंने कहा कि घरेलू धंधों में से थोड़ा समय बचाकर धार्मिक क्रिया करो। इससे पाप हलके हो जाते हैं। अतः लोगों में आम अवधारणा हो गई • अठावन घड़ी पाप की तो दो घड़ी आपकी। • अठावन घड़ी घर की तो दो घड़ी हर की। यद्यपि यह बात सिखाने का मकसद दूसरा था, पर सुननेवाले इतनी गहराई में कब उतरते हैं ? इसी लिए आज धर्म और जीवन-व्यवहार दोनों परस्पर विरोधी दिशाओं में जा रहे हैं। एक बड़ी भूल धर्माधिकारियों ने यह की कि उन्होंने धर्म का सही रूप जनता के सामने नहीं रखा। यदि सही तत्त्व सामने आता तो जनता स्वयं उसका मूल्य आंकती। कहा जाता है कि आज के बौद्धिक-वर्ग में धर्म के प्रति अनास्था है, लेकिन मैं मानता हूं कि इस अनास्था का कारण जितना बुद्धिवाद नहीं है, उतना धर्मांधता है, धर्माधिकारियों की संकीर्ण वृत्ति है। इसे मिटाने के लिए धर्म के क्षेत्र में क्रांति की अपेक्षा है। धर्म और संप्रदाय इस संदर्भ में विचार व्यक्त करते हुए मैंने नोहर में कहा था कि स्वयं की उपासना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003107
Book TitleAage ki Sudhi Lei
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Sermon
File Size13 MB
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