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उसके मन में एक इच्छा प्रबल रूप धारण कर चुकी थी। कोई भी व्यक्ति उसकी कल्पना नहीं कर सकता था। कोशा ने कभी भी इस इच्छा को प्रकट नहीं होने दिया । उसकी इच्छा थी कि मगध सम्राट् घननन्द को प्रसन्न कर इष्ट वस्तु प्राप्त की जाए और स्थूलभद्र को प्रसन्न कर अपना जीवन-संगी बनाया जाए।
देवी सुनन्दा निश्चिन्त थी। उसे यह कल्पना भी नहीं थी कि उसकी पुत्री किसी एक व्यक्ति की होने के लिए इतना परिश्रम कर रही है। यह केवल नृत्य और संगीत की साधना नहीं है ... इसके पीछे एक नारी के प्राणों की साधना भी है.... प्रणय की मधुर कामना भी है।
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मगध सम्राट् ने अनेक राज्यों में यह संदेश प्रसारित कर दिया कि आश्विन शुक्ला पूर्णिमा को भारत की सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी रूपकोशा मगधसम्राट् की राजनर्तकी के रूप में प्रतिष्ठित होगी और उसी रात्रि में सम्राट् के विशाल रंगमंडप में जनता के सम्मुख पहली बार अपना नृत्य प्रस्तुत करेगी। वह सोलह वर्ष की रूप-लावण्यवती रूपकुमारी है। वह नृत्य, संगीत, कामविज्ञान, चित्रकला, श्रृंगार और काव्य तथा अन्य शास्त्रों में पारंगत है। इस अवसर पर कोई भी व्यक्ति मगध सम्राट् का अतिथि बन सकता है।
मगध सम्राट् के रंगमंडप को सजाने का कार्य तीव्रगति से प्रारम्भ
हुआ।
पाटलीपुत्र के युवक और वृद्ध शरद् पूर्णिमा के रसोत्सव की प्रतीक्षा करते हुए दिन गिनने लगे ।
चाणक्य ने बहुत चर्चा करने के बाद आर्य स्थूलभद्र को इस उत्सव में भाग लेने को तैयार किया था । रूपकोशा के समान रूपकलिका को देखने के लिए नहीं, किन्तु एक कलामूर्ति की कला - साधना को निहारने के लिए उन्हें ललचाया था, और वे तैयार हो गए थे ।
उद्दालक के द्वारा चाणक्य जान गया था कि रूपकोशा महामात्य के जिनालय में आयी थी और स्थूलभद्र को अपनी आंखों में बिठा गई है। यह
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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