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महामंत्री का ज्येष्ठ पुत्र स्थूलभद्र गंगा के ऊपर किनारे पर स्थित कामंदकी उद्यान में रमण कर रहा था।
भगवान की आरती सम्पन्न हुई। झालर और घंटानाद धीरे-धीरे शान्त हो गया। भगवान की विधिवत् वंदना और कायोत्सर्ग कर श्रीयक जिनालय से बाहर आया ।
जिनालय के सोपानमार्ग पर ही उसे चाणक्य मिल गया । चाणकमुनि का पुत्र चाणक्य महामंत्री शकडाल का प्रिय शिष्य था । श्रीयक ने चाणक्य को नमस्कार किया। चाणक्य ने मुसकराते हुए कहा, 'स्वस्थ तो हो ?'
'हां ।'
'पिताजी कहां हैं ?'
'विश्रामगृह में ।'
'भगवान के दर्शन कर मैं अभी आ रहा हूँ' - कहकर चाणक्य सोपानमार्ग पर चढ़ने लगा। महामंत्री की सातों कन्याएं मंदिर से बाहर निकलीं ।
सभी ने चाणक्य को नमस्कार किया । चाणक्य ने सबसे कुशलक्षेम
पूछा ।
भव्य ललाट, तेजोमय नयन, प्रचण्ड बाहु, उन्नत वक्षस्थल, ताम्रवर्ण की बलिष्ठ काया, निर्मल, पवित्र और शान्त चेहरे पर सूचित ज्ञान-गम्भीर रेखाएं, कंठ में नीलरत्न की माला, अंगुलियों में अपराजित वज्री मुद्रिकाएं और समूचे अंग-प्रत्यंग से प्रवाहित होने वाली पवित्र प्रतिमा - महामात्य शकडाल का यह स्वाभाविक स्वरूप था ।
महामात्य शकडाल का वर्चस्व केवल मगधेश्वर ही नहीं, समूचे मगध पर था। मगध का छोटा-सा बच्चा भी शकडाल का नाम सुनकर गौरवान्वित होता था ।
भारतवर्ष के सभी राजकुल महामात्य शकडाल के ज्ञान - वैभव के समक्ष नतमस्तक होते थे । पाटलीपुत्र का कण-कण महामात्य शकडाल का ऋणी था। पाटलीपुत्र का यौवन महात्मा कल्पक के वंशघर महामात्य आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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