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रूपकोशा हंस पड़ी। उसने कहा- 'लेखा ! अभी समय का पूरा परिपाक नहीं हुआ है । ज्ञातपुत्र का संयम मार्ग बहुत कठोर है। अभी मैं यहां से राजगृह जाऊंगी। वहां शास्त्राभ्यास करूंगी और ज्ञान की परिपक्वता, साधना की परिपक्वता के पश्चात् मैं साध्वी बनूंगी।'
चित्रलेखा की आंखें सजल हो गयी। उसने कोशा की ओर देखा । वह बोलने में असमर्थ थी ।
कोशा ने चित्रलेखा को प्रेम से पुचकारा ।
वह दिन भी आ गया
उस समृद्ध भवन से कुछ भी लिये बिना कोशा भवन से बाहर निकली। चित्रलेखा, चित्रा और अन्य सभी सदस्य रोते-रोते उसके पीछे चले जा रहे थे ।
कोशा ने सबको संबोधित करते हुए कहा - ' मोह सभी दुःखों का मूल है । बन्धन की माया बड़ा दुःख है। आप सब मुझे भूल जाना। मेरी ज्ञात-अज्ञात त्रुटियों को क्षमा करना । मैं भी आप सबकी त्रुटियों को क्षमा करती हूं। मेरे मन में आप सबकी त्रुटियों की स्मृति तक नहीं है। आप सब धर्म के क्षेत्र में प्रतिपल अग्रसर होते रहना । '
चित्रा ने गद्गद स्वरों में कहा - 'देवी !..... '
'चित्रा ! तेरे मन में मेरे प्रति कितना ममत्व है, मैं समझती हूं, किन्तु ममता के बन्धन को तोड़े बिना मुक्ति संभव नहीं है। तेरे स्वामी और तेरा पुत्र आनन्द में रहें, यही मेरा आशीर्वाद है।'
चित्रा रो पड़ी। उद्दालक और भवन के सभी सदस्य रोने लगे। वे कुछ भी बोलने में असमर्थ हो रहे थे।
कोशा ने चित्रलेखा के माथे पर हाथ रखकर कहा - 'लेखा ! धर्म, संयम और सदाचार को कभी विस्मृत मत करना। जिस दिन तेरे में त्याग का बल बढ़े, उस दिन तू ममता को छोड़कर मुक्ति के मार्ग पर बढ़ जाना। जहां मां गई है, आर्य स्थूलभद्र गए हैं, मैं जा रही हूं....वही मार्ग तेरे लिए भी अनुकरणीय होगा ।'
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आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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