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रूपकोशा ने चित्रलेखा को अपने पास बिठाकर कहा- 'बहन ! मैं एक महत्त्वपूर्ण बात कहना चाहती हूं। आज उसका पूरा परिपाक हो चुका है। तू मुझे एक वचन दे ।'
'बहन! कैसा वचन ? आप जो आज्ञा देंगी, वही करूंगी।' चित्रलेखा विस्मित होकर कहा ।
'लेखा ! किसी भी परिस्थिति में तू अपने रूप और यौवन को आजीविका का साधन मत बनाना। जो संयम मुझे मां से प्राप्त हुआ है, उसे मैं तुझे दे रही हूं।' कोशा ने कहा, 'क्या तू मुझे यह वचन दे सकती है ?' लेखा ने मस्तक झुका लिया।
कोशा बोली- 'आज से एक सप्ताह बाद मैं सदा-सदा के लिए इस भवन का त्याग कर चली जाऊंगी। जाने से पूर्व तेरे प्रति जो मेरा नैतिक कर्त्तव्य है, उसे मैं पूरा कर दूंगी।'
'बड़ी बहन !' कहकर चित्रलेखा ने कोशा की गोद में सिर रख दिया । रूपकोशा बोली- 'मेरी मां भी इस भवन का त्याग कर चली गई थी। आर्य स्थूलभद्र भी इस भवन का परित्याग कर चले गए। अब मुझे भी उसी मार्ग पर कदम बढ़ाने हैं।'
'बहन ! तुमने ऐस निर्णय क्यों किया है ? क्या कोई कष्ट है ? फिर यदि तुम चली जाओगी तो मेरा क्या होगा ? मैं अकेली इस विराट् भवन में एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकूंगी। तुम्हारे बिना मेरे सुख - दुःख की चिन्ता करने वाला कौन रहेगा ?'
'लेखा ! तू नृत्यकला में प्रवीण हो गई है। इस भवन में अपार धनराशि है । तुझे चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। अब मैं इन बन्धनों के बीच रह नहीं सकूंगी। ज्ञातपुत्र भगवान महावीर का शासन मुझे बुला रहा है । आर्य स्थूलभद्र की तपस्या और पवित्रता मुझे उस मार्ग पर अग्रसर होने के लिए उत्साहित कर रही है। मंगल-पथ पर आगे बढ़ना हर्ष का विषय है, शोक का नहीं ।'
'अच्छा, बहन ! तो मुझे भी साथ ले चलो।'
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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