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________________ गुरु ने स्थूलभद्र के मनोबल और संकल्प की दृढ़ता को देखकर शिष्यों के मध्य उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की । तीन बार उन्हें साधुवाद दिया और सत्कार देकर उनका विरुद बढ़ाया। कुछ ही वर्ष पूर्व के दीक्षित स्थूलभद्र मुनि का यह सत्कार और सम्मान देखकर कुछेक मुनियों को आश्चर्य हुआ और उन्होंने गुरु के पक्षपातपूर्ण व्यवहार पर दुःख प्रकट किया। सिंह की गुफा के पास चातुर्मास बिताकर आए हुए मुनि के मन में ईर्ष्या उभर आयी । उसका मन द्वेष से भर गया । वह सोचने लगा कि वैभव और विलास के मध्य रहकर आए हुए स्थूलभद्र ने ऐसा कौन-सा तपश्चरण किया है, जिसकी प्रशंसा गुरु ने तीन-तीन बार की है ? दिवस बीतते गए। मुनि स्थूलभद्र साधना में विकास कर रहे थे। उनका शास्त्राभ्यास वृद्धिंगत हो रहा था । पुनः वर्षावास का समय निकट आ गया । शिष्य आचार्य के समक्ष अपना-अपना अभिग्रह व्यक्त करने लगे । गुरु अभिग्रह को सुनकर यथायोग्य स्वीकृति देते रहे। सिंह गुफावासी मुनि आचार्य के समक्ष आया और अपना अभिग्रह व्यक्त करते हुए बोला- 'गुरुदेव ! इस बार मैं पाटलीपुत्र में रहने वाली राजनर्तकी रूपकोशा की चित्रशाला में षड्स भोजन करता हुआ चातुर्मास बिताना चाहता हूं।' गुरुदेव महान ज्ञानी थे। उन्होंने तत्क्षण जान लिया कि इस मनोभावना की पृष्ठभूमि में साधना का भाव नहीं, बल्कि ईर्ष्या और द्वेष का भाव है। आचार्य ने कहा- 'वत्स! बहुत कठोर है। यह कार्य इतना सरल नहीं है, जितना तुम समझ रहे हो। यह मार्ग अति कठोर है- अति दुष्कर है ।' 'गुरुदेव ! आप निश्चिन्त रहें, मुझे आज्ञा प्रदान करें।' गुरुदेव मौन रहे । आर्य स्थूलभद्र और कोशा Jain Education International For Private & Personal Use Only २७६ www.jainelibrary.org
SR No.003105
Book TitleArya Sthulabhadra aur Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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