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इक्कीसवां दिन ।
प्रथम प्रहर के पूर्ण होने से पूर्व ही कामगृह इन्द्र के नृत्यगृह की भांति शृंगारित हो चुका था। आज एक विशेष प्रकार से संरचना की गई थी। एक परदे के पीछे वाद्यकारों का स्थान निर्धारित था। स्थूलभद्र के आसन के ठीक सामने 'अनंग-प्रभाव' नृत्य की भूमिका रची गई थी।
मुनि स्थूलभद्र अपने आसन पर शांत स्थिर होकर बैठे थे। ऐसा लग रहा था मानो उनके आस-पास कुछ भी नया नहीं हो रहा है। वाद्यकारों ने कोशा की आज्ञानुसार रागिनी प्रारम्भ की। उस खंड में आज कोई नहीं था ।
४६. गर्वविसर्जन
कोशा वस्त्रगृह से कामगृह में गई। सरस्वती की मूर्ति को माल्यार्पण किया । फिर उसने मुनि को प्रणाम किया। मुनि ने कोमल स्वर में कहा - 'धर्मलाभ । ' कोशा को हृदय चीख उठा - 'धर्मलाभ । '
कोशा नृत्यभूमि में आयी । उसने अपना उपवस्त्र उतारकर डाल दिया । अरे, यह क्या ? यह वही कोशा है या फूलों की रानी ? आज कोशा के शरीर पर केवल फूलों के ही अलंकार थे..... एक कमरपट्ट के अतिरिक्त कोई वस्त्र नहीं था....पैरों की एड़ी तक लटकते केशों में फूल गूंथे गए थे.... मालाएं फूल की थीं.... रूपकोशा का यह रूप किसे आकृष्ट नहीं करता ! फूलों की देह को बींधकर उसके शरीर की रश्मियां चारों ओर प्रसार पा रही थीं.... पतली कमर पर फूलों की कटिमेखला शोभित हो रही थी.... मानो फूल अपने जीवन को धन्य मान रहे हों । पुष्प की केंचुली से धड़कते हृदय की धड़कन से पुष्प उछल-कूद कर रहे थे ।
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आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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