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४६. कौन जीतेगा?
चित्रशाला के कामकक्ष में मुनि स्थूलभद्र एक जीर्ण आसन पर बैठे थे। उनका मन शांत और अनुद्विग्न था। कामगृह की छटा निराली थी। कामगृह की सारी भित्तियां कामशास्त्र के चित्रांकनों से भरी पड़ी थीं। वे चित्र किसी भी पुरुष में कामवासना जगाने में सक्षम थे। नर-नारी के प्राकृतिक स्वरूप से लेकर संभोग की विविध क्रियाओं के नग्न चित्र वहां थे। आस-पास में केली सदन की रचना थी। विलास के सारे साधन वहां एकत्रित थे। इस चित्रशाला के निर्माण में, स्थूलभद्र ने संसारी अवस्था में, प्राण उंडेले थे।
किन्तु आज......
स्थूलभद्र वर्तमान की गहराइयों में डुबकियां ले रहे थे। अतीत उनका विस्मृत हो चुका था। भूतकाल की समाधि पर मानो उन्होंने मुनि का आसन बिछा रखा था।
रूपकोशा धीरे-धीरे कामगृह में आयी। उसने देखा, स्थूलभद्र प्रशांतचित्त से एक आसन पर बैठे थे। उनके आस-पास यौवन का तूफान शांत होकर गिड़गिड़ा रहा था। जो कामचित्र एक दिन उत्तेजना पैदा करते थे, वे आज सत्त्वहीन प्रतीत हो रहे थे।
कोशा स्थूलभद्र के पास जाकर, प्रणाम कर बैठ गयी। स्थूलभद्र ने देखा, धर्मलाभ कहा।
कोशा बोली- 'स्वामी! आप इस कठोर आसन पर क्यों बैठे हैं ? मेरे शयनखंड में आने में क्या बाधा है?'
'भद्रे! इस कामगृह में ही मुझे चातुर्मास बिताना है और यह काष्ठ का आसन बहुत उत्तम है। मुझे कुछ भी कष्ट नहीं है।'
'आप यहां अकेले सोते रहें और मैं वहां अकेली सोती रहूं, क्या यह उचित है?'
आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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