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________________ प्रारम्भ हुए। मयूर की केका चारों ओर सुनाई देने लगी। वर्षा के आनन्द और किसानों के हर्ष से धरती प्रफुल्ल हो गई। कोशा इन पन्द्रह दिनों से स्थूलभद्र की परीक्षा कर रही थी। किन्तु उनमें कोई परिवर्तन नहीं आया। कोशा के मन में अनेक संदेह उभरने लगे-यहां ये क्यों आये होंगे? इनके वदन पर न रसिकता है और न तमन्ना। लगता है ये ज्ञानमय हो गए हैं। किसी से न बात करते हैं और न कुछ कहते हैं। केवल प्रश्नों का उत्तर मात्र देते हैं। मध्याह्न में केवल एक बार अपने काष्ठपात्र में भोजन करते हैं और पूरा दिन मनन, चिंतन और ध्यान में बिताते हैं। यदि ऐसे ही दिन बिताने थे तो यहां क्यों आए? प्रत्यक्ष दर्शन की जलन से तो इनकी स्मृति ही मधुर थी....हृदय भस्मसात् हो रहा है....प्राण तड़प रहे हैं....मन को विश्राम ही नहीं मिलता। अनन्त विचार आते रहते हैं। अंधेरी रात थी। वर्षा का तांडव हो रहा था। बार-बार बिजली की चमक-दमक कोशा की शय्या पर चकाचौंध पैदा कर अदृश्य हो जाती थी। प्रकृति भयानक हो रही थी। कोशा की आंखों में नींद नहीं आ रही थी। स्थूलभद्र को पुन: इस शय्या पर कैसे लाया जाए-इन्हीं विचारों में वह जाग रही थी। वर्षा की बौछार भवन को गीला कर रही थी। फिर भी कोशा ने वातायन की खिड़कियों को खुला रखा था क्योंकि बारह वर्षों की अनेक स्मृतियां उसकी आंखों के सामने तैर रही थी। कोशा का मन बोल उठा-त्याग करने के बाद स्वामी पुन: घर आए हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि वे मुझे भूले नहीं हैं। उन्हें मेरी स्मृति है तो मेरे प्रेम की भी स्मृति होगी। मेरे नृत्य को, मेरे रूप को और मेरे विलास को वे कैसे भूल पाएंगे? तो वे इन सबको याद क्यों नहीं कर रहे हैं? क्या कोई क्षोभ है उनके मन में ? संभव है लज्जा और संकोचवश वे अपनी इच्छा व्यक्त न कर सकते हों? ओह ! कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है। बड़ी विचित्र स्थिति है। जीवन में ऐसे क्षण क्यों आते हैं ? आर्य स्थूलभद्र और कोशा २५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003105
Book TitleArya Sthulabhadra aur Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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