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नृत्यकला के वे गुरु थे। भारतवर्ष के कोने-कोने से संगीताचार्य आचार्य कुमारदेव के पास संगीत और नृत्य की शिक्षा लेने के लिए आते। आचार्य के पूर्वजों ने वैशाली में अम्बपाली, गांधार में मदनमंजरी, मालव में कादम्बिनी और गुर्जर में कामकुण्डला की सर्जना की।
संगीत के मर्मज्ञ आचार्य कुमारदेव आज मगध में रूपकोशा को कला की प्रतिमा बनाने में व्यस्त हैं। आचार्य उदार हृदय के धनी, चरित्रवान्, सात्विक गुणों से युक्त, परम धार्मिक व्यक्ति थे। वे बुद्ध के अनुयायी आदर्श ब्राह्मण थे। कोशा की माता सुनन्दा को आचार्य कुमारदेव ने ही संगीत और नृत्य की शिक्षा दी थी।
पाटलीपुत्र में ही नहीं, पूर्व भारत में ही नहीं, समूचे भारतवर्ष में वे संगीत-गुरु के रूप में प्रख्यात थे। वे गंगा के किनारे एक पर्णकुटी में रहते थे। दूसरे देशों के निमंत्रण उन्हें आकृष्ट नहीं कर पा रहे थे।
पितातुल्य गुरुवर का भावभीना सत्कार कर सुनन्दा नृत्यखण्ड में आयी।
चन्दनकाष्ठ से निर्मित एक आसन पर मृगचर्म बिछाकर आचार्य को भक्तिपूर्वक बिठाया। आचार्य ने नृत्यखण्ड में निर्मित मंच की ओर देखकर कहा, 'कोशा नहीं आयी?'
'अभी आ रही है। वह वस्त्र परिवर्तन करने गई है।' सुनन्दा ने कहा।
कोशा के तीन वाद्यनियोजक- सोल्लक, दक्षक और सोमदत्त नृत्यशाला में आए और आचार्य के चरणों में नतमस्तक होकर अपनेअपने आसन पर बैठ गए।
परिचारिक और परिचारिकाएं मौनभाव से आज्ञा की प्रतीक्षा करने लगीं। माधवी गुरुपूजा की सारी सामग्री लेकर आ पहुंची।
चित्रा और कल्याणी के साथ कोशा नृत्यगृह में आ गई।
आचार्य के चरणों का स्पर्श कर वह नीचे बैठ गई। आचार्य ने पूछा, 'पुत्री! कुशलक्षेम है?' आर्य स्थूलभद्र और कोशा
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