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________________ ३३. शकडाल का निर्णय उगते सूर्य की रश्मियां महामंत्री शकडाल के भव्य प्रासाद पर बिखर रही थीं। महामन्त्री अभी-अभी अपने उपासना-गृह से बाहर आए थे। उनका भव्य ललाट चन्दन के तिलक से शोभित हो रहा था। उनके नयन आत्मप्रकाश को प्रकट कर रहे थे। मगध को समृद्ध करने वाली उनकी भुजाएं अभी भी शिथिल नहीं पड़ी थीं। इतना होने पर भी इस परम तेजस्वी और ज्ञानी राजपुरुष के हृदय में भयंकर तूफान उठ रहा था। विमलसेन से प्राप्त समाचारों से महामन्त्री का मन उथल-पुथल हो रहा था। कल का क्षुद्र घननन्द मानो याचना करता हुआ इनके सामने खड़ा है और इन्होंने अपूर्व प्रेम और निष्ठा से उसके मस्तक पर अपना हाथ रखा है। वैशाली के संग्राम में घननन्द का वैभव और सम्मान दांव पर लग चुका था। दोनों का संरक्षण महामन्त्री ने किया था। घननन्द के गृहक्लेश का उपशमन भी महामन्त्री ने ही किया था। मूर और घननन्द के छोटे पुत्र को कारावास प्राप्त हो चुका था। महामन्त्री ने दोनों को बचाया और घननन्द की अपकीर्ति होते-होते बची। __मगध की समृद्धि के लिए महामन्त्री शकडाल ने सदा अपने स्वार्थों को गौण किया। यदि ये चाहते तो सम्राट् घननन्द को कभी का मिट्टी में मिला देते। किन्तु महामन्त्री शकडाल महात्मा कल्पक के वंश के गौरव थे, संरक्षक थे। सभी स्वार्थ, सभी सुख और सभी स्वहितों को एक ओर रखकर महामन्त्री ने मगध और मगध की जनता तथा मगधेश्वर का कल्याण किया था। यही महामंत्री का एकमात्र जीवन-मन्त्र था। १८३ आर्य स्थूलभद्र और कोशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003105
Book TitleArya Sthulabhadra aur Kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal C Dhami, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages306
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size10 MB
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